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________________ जैन श्रमण परम्परा का दर्शन ध्रुवरूप मूलस्वभाव को नहीं छोड़ता, उसके द्वारा वह सदा ही उत्पाद-व्ययरूप परिणाम को व्यापता रहता है। यह उसकी नित्यता है। आगम में प्रत्येक द्रव्य को जो अनेकान्त स्वरूप कहा गया है, उसका भी यही कारण है। द्रव्य में उत्पाद-व्यय ये कार्य हैं । वे होते कैसे हैं, यह प्रश्न है-स्वयं या पर से ? किसी एक पक्ष के स्वीकार करने पर एकान्त का दोष आता है, उभयतः स्वीकार करने पर, जीव का मोक्ष स्वरूप से कथंचित् स्वाश्रित है और कथंचित् पराश्रित है, ऐसा मानना पड़ता है, जो युक्तियुक्त नहीं है । अतः वस्तुस्थिति क्या है, यह विचार णीय है। समाधान यह है कि किसी भी द्रव्य को अन्य कोई बनाता नहीं, वह स्वयं होता है । अतः उत्पाद-व्यय रूप कार्य को प्रत्येक द्रव्य स्वयं करता है । वही स्वयं कर्ता है और वही स्वयं कर्म है। करण, सम्प्रदान, अपादान और अधिकरण भी वही स्वयं है । अविनाभाव सम्बन्धवश उसकी सिद्धि मात्र पर से होती है, इसीलिए उसे कार्य (उपचार) का साधक कहा जाता है। पर ने किया यह व्यवहार है, परमार्थ नहीं, क्योंकि पर ने किया इसे परमार्थ मानने पर दो द्रव्यों में एकत्व की आपत्ति आती है, जो युक्तियुक्त नहीं है । अतः प्रकृत में अनेकान्त इस प्रकार घटित होता है उत्पाद-व्यय कथंचित् स्वयं होते हैं, क्योंकि वे द्रव्य के स्वरूप हैं। कथंचित् पर से होने का व्यवहार है, क्योंकि अविनाभाव सम्बन्धवश पर उनकी सिद्धि में निमित्त है।" __ जैन धर्म में प्रत्येक द्रव्य को स्वरूप से जो स्वाश्रित (स्वाधीन) माना गया है उसका कारण भी यही है। जीव ने परमें एकत्व बुद्धि करके अपने अपराधवश अपना भवभ्रमण रूप संसार स्वयं बनाया है ।१२ कर्मरूप पुद्गल द्रव्य का परिणाम उसके अज्ञानादिरूप संसार का कर्ता नहीं होता। पर परको करे ऐसा वस्तु स्वभाव नहीं। वह स्वयं अज्ञानादिरूप परिणाम को जन्म देता है, इसलिए स्वयं उसका कर्ता होता है। फिर भी इसके जो ज्ञानावरणादिरूप पुद्गल कर्म का बन्ध होता है उस सम्बन्ध में नियम यह है कि प्रति समय जैसे ही यह जीव स्वरूप से भिन्न पर में एकत्वबुद्धि या इष्टानिष्ट बुद्धि करता है वैसे ही ज्ञानावरणादिरूप परिणमन की योग्यता वाले पुद्गल स्कन्ध स्वयं उससे एकक्षेत्रावगाहरूप बन्ध को प्राप्त होकर फल काल के प्राप्त होने पर तदनुरूप फल देने में निमित्त होते हैं । जीव ११. आप्तमीमांसा कारिका ७५ । १२. समयसार गा० १३ । परिसंवाद- Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014026
Book TitleJain Vidya evam Prakrit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulchandra Jain
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1987
Total Pages354
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size20 MB
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