SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 137
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैनविद्या एवं प्राकृत : अन्तरशास्त्रीय अध्ययन (३) इनके परिवार में बहु विवाह-प्रथा प्रचलित थी तथा स्त्रियों को ससुराल में नया नाम दिया जाता था। (४) सती प्रथा इस समाज में विद्यमान थी। विशेष रूप से ओसवाल जाति के जैनों में। १९. संघपति अभयराज एवं जगजीवन ये आगरा के रहने वाले धनी अग्रवाल जाति के जैन थे। व्यापार इनका मुख्य व्यवसाय था। संघपति अभयराज ने आगरा में एक विशाल जिन मन्दिर बनवाया था ।७२ इनको संघपति की उपाधि से विभूषित किया गया था। इनकी कई पत्नियाँ थीं, इनमें सबसे छोटी मोहनदे से जगजीवन का जन्म हुआ था । जगजीवन एक सम्पन्न जैन के साथ ही साथ राजनीतिक व्यक्ति थे। शाहजहाँ के शासनकाल में पाँचहजारी मंसबदार उवराव जाफर खाँ के जगजीवन दीवान थे। उस समय आगरा के जैनों में कुछ आध्यात्मिक व्यक्ति थे उसमें जगजीवन भी थे। इन्होंने सन् १६४९ ई. में 'बनारसीविलास' का संकलन किया था ।७३ २०. जगत सेठ के पूर्वज राय उदयचंद प्रथम जगत सेठ फतहचंद के पूर्वज मूलतः अहमदाबाद के निवासी थे । उनमें से पदमसी सन् १६२७ ई. में खम्भात जा बसे । इनके दो पुत्र थे-श्रीपति और अमरदत्त । संभवतः दोनों ही जोहरी का कार्य करते थे। शाहजहाँ की विशेष कृपादृष्टि अमरदत्त पर हुई, वह इनको अपने साथ आगरा ले आया। आगरा में अमरदत्त को जवाहरात की मुकीमी का पद मिला, फिर यह पद उसके बेटों को मिला । इनके दो पुत्र थे-राय उदयचंद और केसरीसिंह । हीरानंद की पुत्री तथा सेठ माणिकचंद की बहन धनबाई का विवाह राय उदयचंद से हुआ। इनके चार पुत्र थेमित्रसेन, सभाचंद, फतहचंद और रायसिंह । फतहचंद को उनके मामा मानिकचंद जो निःसंतान थे, ने १७०० ई. में गोद ले लिया ।७६ ये उस समय पटना में ही थे और प्रायः व्यापार में मानिकचंद का सहयोग करते थे। सम्राट फर्रुखसियर ने अपने शासन के पाँचवें वर्ष एक फर्मान निकालकर फतहचंद को भी सेठ की उपाधि से विभूषित किया; इसके पूर्व मानिकचंद भी सेठ की उपाधि प्राप्त कर चुके थे। लेकिन, प्रथम जगत सेठ होने का गौरव फतहचंद को ही मिला ।७७ ७२. भारत के दिगम्बर जैन तीर्थ प्रथम भाग, पृ. ६० । ७३. परमानंद शास्त्री 'अग्रवालों का जैन संस्कृति में योगदान' अनेकान्त (अगस्त १९६७) । ७४. पारसनाथ सिंह, जगतसेठ (प्रयाग, भारती भंडार प्रका०, १९५०) पृ० ६७ । ७५. वही, पृ० ६७ । ७६. वही, पृ० ६७ । ७७. वही, पृ० ६८ । परिसंवाद-४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014026
Book TitleJain Vidya evam Prakrit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulchandra Jain
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1987
Total Pages354
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy