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________________ 20838 न्यायाचार्य पं. माणिकचंदजी कोन्देय 0 लेखक : एस.सी.जैन (अंग्रेजी) 0 अनुवादक : डॉ. जिनेश्वरदास जैन (हिन्दी) न्यायाचार्य पण्डित माणिकचंदजी कोन्देय के वे भारत के दो प्रसिद्ध शिक्षण केन्द्रों – गोपाल देहावसान से जैन समाज को अत्यन्त आघात पहुँचा। सिद्धान्त विद्यालय मुरैना, ग्वालियर एवं जम्बू विद्यालय, उनका बिछोह हमें हर समय खलता रहेगा और उनकी सहारनपुर (उ.प्र.) के प्रोफेसर व प्रिंसिपल रह चुके हैं, अनुपस्थिति भविष्य में हर पल याद दिलाती रहेगी। वे जिनके निर्देशन में कई पंडित व विद्वान इन विद्यालयों महान पाण्डित्य, निस्वार्थभाव के आदर्श मर्तिरूप थे। से अध्ययन कर निकले हैं। उन्होंने कई प्रतियोगताओं. श्री कोन्देयजी द्वारा २०वीं शती में रचित 'तत्त्वार्थ- संगोष्ठियों एवं विद्वत्सम्मेलनों में भाग लेकर जैन दर्शन चिंतामणि' पुस्तक को पढकर. मैंने अपनी (एस.सी. को प्रसिद्धि दिलवाई। उन्होंने अपने अन्तिम दिन जैन) पस्तक 'जैन धर्म की प्रस्तावना' पेज १४ में उन्हें फिरोजाबाद (उ.प्र.) में बिताए। उन लेखक-श्रृंखला में डाला है, जिन्होंने आचार्य जैन दर्शन अनेकान्त व स्याद्वाद सिद्धान्तों के उमास्वामी कृत 'तत्त्वार्थ-सूत्र' की टीकाएँ लिखी हैं। परिप्रेक्ष्य में, अस्तित्व ज्ञान (विद्या) एवं अभिव्यक्ति उनकी इस रचना से उनकी चिन्तन की गहराई, के आधार पर परस्पर विरोधी गुणों का नियमीकरण एवं सबोधगम्य अभिव्यक्ति मनाओं की पलता समन्वय कराता है। दर्शन संबंधी ऐसे कठिन सिद्धान्तों परिलक्षित होती है। आचार्य विद्यानंद द्वारा रचित का विश्लेषण करने के लिए लेखक में एक असाधारण 'श्लोकवार्तिक' पुस्तक को सामने रखकर मिलान करें योग्यता होनी चाहिए। श्री कोन्देयजी में अपने विद्यार्थी तो पायेंगे कि 'तत्त्वार्थचिंतामणि' पुस्तक पाँच हजार जीवन से अपनी उम्र की परिपक्वता प्राप्त होने तक पृष्ठों में फैली ७ वाल्यूमों में बँटी हुई है। श्री कोन्देयजी प्रकृति देय ऐसी प्रतिभा प्राप्त थी। ने इस पुस्तक में आचार्य विद्यानंद द्वारा प्रतिपादित विरोधाभासी गुणों का समन्वय करने की जैनदर्शन का विस्तृत विवेचन किया है। आचार्य विद्यानंद कला वह कला है, जो कि न किसी युक्ति से और न ने अपनी रचना श्लोक-वार्तिक' में आचार्य उमास्वामी - ही किसी परंपरा से खंडित की जा सके। ऐसी कला द्वारा रचित 'तत्त्वार्थसूत्र' की टीका की है और आचार्य के धारक (पदवी) जो आचार्य समन्तभद्र ने अपनी उमास्वामी ने भगवान महावीर की दिव्यध्वनि द्वारा पुस्तक " पुस्तक 'आप्त-मीमांसा' में भगवान महावीर को दी प्रतिपादित जैन सिद्धान्तों का संकलन किया है। इस __ थी, वही योग्यता श्री कोन्देयजी के साथ भी लागू हो " सकती है, क्योंकि इनकी पुस्तक 'तत्त्वार्थ चिंतामणि' प्रकार हम देखते हैं कि श्री कोन्देयजी ने अपनी पुस्तक व उनकी अन्य रचनाओं में ये कला आश्चर्यकारी 'तत्त्वार्थ चिंतामणि' पुस्तक में पृष्ठ दर पृष्ठ उस जैन तर्कों से सफलता पूर्वक की गई स्पष्ट झलकती है। दर्शन का विस्तृत विवेचन किया है, जिसे जिनागम उन्होंने अपने तर्कों में न तो जैनागम की उपेक्षा की है कहते हैं। और न ही जैनागम के लिए तर्कों की उपेक्षा की है। श्री कोन्देयजी का जीवन एक शिक्षक के रूप इससे उनका बेजोड़ अध्ययन परिलक्षित होता है। में भी कम प्रसिद्ध व प्रतिस्पर्धा पूर्ण नहीं है। इनके द्वारा जैन दर्शन का मर्मस्पर्शी तुलनात्मक अध्ययन महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-4/51 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014025
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 2007
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year2007
Total Pages312
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size11 MB
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