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________________ हैं। इनमें से प्रारम्भ के तीन ग्रन्थ दर्शन, ज्ञान और चारित्र के रत्नत्रयी हैं । आचार्य कुन्दकुन्द का साहित्य श्रमण और श्रावक / साधु व गृहस्थ दोनों के हितार्थ प्रशस्त मार्ग का निदर्शन है। आचार्य कुन्दकुन्द के उपदेश - आचार्य कुन्दकुन्द के साहित्य प्राकृत भाषा में लिखे गए। वह समय प्राकृत भाषा का स्वर्ण युग माना जाता था । आचार्य कुन्दकुन्द का साहित्य / दर्शन सभी प्राणी वर्ग के लिए उपदेश से भरपूर है। इनका सारांश निम्न प्रकार है १. शुभोपयोग – जो आत्मा देव, यति, गुरू की पूजा में, दान में, गुणव्रत महाव्रत रूप उत्तमशीलों में और उपवासादि शुभ कार्यों में लीन रहता है, वह शुभोपयोगी है। आचार्य कुन्दकुन्द ने अपने साहित्य में शुभोपयोग को श्रावक और श्रमण दानों के लिए आवश्यक बताया है; जिससे प्राणी असद् से सद् की ओर उन्मुख होता है और जीवन को सक्रिय रखने के लिए श्रम के संस्कार जगाने की संस्तुति करता है । शुभोपयोग स्वर्ग प्राप्ति का साधक है। २. शुद्धोपयोग - शुभोपयोग शुद्धोपयोग का साधक है तथा यह मोक्ष प्राप्ति का मार्ग है । कुन्दकुन्दाचार्य के अनुसार जो संयम तप से युक्त है, राग रहित है; सुख-दुख जिनको समान दिखते हैं; ऐसा श्रमण शुद्धोपयोगी है। परिपूर्ण शुद्धोपयोग हो जाने से आत्मा अरहंत तथा सिद्ध अवस्था को प्राप्त करते हैं अर्थात् प्राणी प्रभु हो जाता है। ३. लोक-कल्याण - कुन्दकुन्दाचार्य लोक कल्याण दृष्टि से कहते हैं कि कल्याण का ठेका उच्च कुल या उच्च जाति वालों ने ही नहीं लिया है क्योंकि देह, कुल और जाति वन्दनीय नहीं है, वन्दनीय हैं गुण । जिसमें हैं वह वन्दनीय है और गुण का विकास प्रायः सभी मनुष्यों में सम्भव है। ४. भेद विज्ञान - भेद विज्ञान मोक्ष का कारण है। आचार्य कुन्दकुन्द के साहित्य के अनुसार संसार Jain Education International में जो भी कर्म से बंधे हैं, वे सभी भेद विज्ञान के अभाव में बंधे हैं अर्थात् आत्मा और कर्म की एकता के मानने से ही संसार है। वहाँ अनादि से जब तक भेद - विज्ञान नही है, तब तक वह कर्म से बंधता ही है। अतः कर्म बन्ध का मूल भेद - विज्ञान का अभाव है। ५. कर्म बन्धन का ह्रास - कर्म बन्धन का कारण मिथ्यात्व, अविरमण, कषाय और योग है। जब तक जीव को आत्मा और आस्रव के कारण राग द्वेषादि भावों के पृथकत्व का ज्ञान नहीं होता तब तक यह जीव क्रोधादिक के परभाव होने पर भी उनमें निज - एकत्व भाव से वर्तता है, ऐसी स्थिति में उसमें कर्म बन्ध होता है। कुन्दकुन्दाचार्य ने आत्मस्थिति को कर्म निर्जरा का कारण बतलाया है। जो प्राणी बन्ध और आत्मा के स्वभावों को जानकर जो बन्ध के कारणों से विरक्त होता है, वह कर्मों से मुक्त होता है । ६. आचार्य कुन्दकुन्द के अनुसार - शील से ही सिद्धि है । जिस प्रकार रत्नों से भरा समुद्र जल सहित होने पर ही शोभा पाता है; उसी प्रकार तपविनय, दान आदि सहित आत्मा शीलयुक्त होने पर ही शोभा पाता है, क्योंकि शील सहित होने पर उसे निर्वाण पद प्राप्त होता है। 1 ७. चारित्र ही धर्म है - आचार्य कुन्दकुन्द के अनुसार त्रिरत्न रूप सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्र की एकता ही मोक्षमार्ग है । उनके अनुसार जो व्यक्ति जीव अजीव पदार्थों एवं स्व-पर का भेद जानता है वह सम्यग्ज्ञानी है । परद्रव्यों से राग-द्वेष छोड़कर ज्ञान में स्थिर होने पर निश्चय चारित्र होता है; जो सच्चा मोक्षमार्ग है। ८. सम्यक्त्व (सम्यग्दर्शन) का महत्त्व सम्यक्त्व मोक्षमार्ग का प्रथम सोपान है। इसी भाव को व्यक्त करते हुए आचार्य कुन्दकुन्द ने कहा है कि जिनेन्द्र देव के शासन में ज्ञान, दर्शन, तप और चारित्र इन चारों समायोग होने पर जो संयम गुण होता है, उससे मोक्ष होता है। O जीव विज्ञान, शिक्षाविभाग, व्याख्याता, आई.सी.जी.आई.ई., आर. डी. मानसरोवर, जयपुर - महावीर जयन्ती स्मारिका 2007 4/50 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014025
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 2007
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year2007
Total Pages312
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size11 MB
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