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________________ 3 ; सा हि शोकसमाविष्टा वाष्पपर्याकुलेक्षणा। मैथिली विजयं श्रुत्वा द्रष्टुं त्वामाभिकांक्षति ॥३ - युद्धकाण्ड ११४ दिव्यांगरांगा वैदेहीं दिव्याभरणभूषिताम् । इह सीतां शिरःस्नातामुपस्थापय मा चिरम् ।।७ - युद्धकाण्ड ११४ तामागतामुपश्रुत्य रक्षोगृहचिरोषिताम्। रोषं हर्ष च दैन्यं च राघवः प्राप शत्रुहा ।।१७ - युद्धकाण्ड ११४ प्रत्ययार्थं ततः सीता विवेश ज्वलनं तदा। प्रत्यक्षं तव सौमित्रे देवानां हव्यवाहनः ।।७ अपापां मैथिलीमाह वायुश्चाकाशगोचरः। चन्द्रादित्यौ च शंसेते सुराणां सन्निधौ पुरा ।।८ ऋषिणां चैव सर्वेषामपापां जनकात्मजाम् । एवं शुद्धसमाचारा देवगन्धर्व सन्निधौ॥९ लंकाद्वीपे महेन्द्रेण मम हस्ते निवेशता ॥१० - उत्तर ४५ यथाहं राघवादन्यं मनसापि न चिन्तये। तथा मे माधवी देवी विवरं दातुमर्हति ॥१४ मनसा कर्मणा वाचा यथा रामं समार्चये। तथा मे माधवी देवी विवरं दातुमर्हति ॥१५ यथैतत् सत्यमुक्तं में वेदिम् रामात् परं न च । तथा मे माधवी देवी विवरं दातुमर्हति ॥१५ - उत्तरकाण्ड ९७ हृताधिकारां मलिनां पिण्डमात्रोपजीविनाम् । परिभूतामधःशय्यां वासयेद्व्यभिचारिणीम् ॥७० सोमः शैचं ददावासां गन्धर्वश्च शुभां गिरम्। पावकः सर्वमेध्यत्वं मेध्या वै योषितो हतः ॥७१ व्यभिचारादृतौ शुद्धिगर्भे त्यागो विधीयते । गर्भभर्तृधादौ च तथा महति पातके ॥७२ – याज्ञवल्क्यस्मृति १ २०वें तीर्थंकर मुनिसुव्रतनाथ के समय राम, लक्ष्मण, रावण, हनुमान आदि हुए हैं। राम को अपने जीवन के अन्तिम समय में संसार से वैराग्य हुआ। तो शान्ति प्राप्त करने के लिए जो अपनी इच्छा व्यक्त की, उसका उल्लेख योगवाशिष्ठ ग्रन्थ में मिलता है - नाहं शमो न वाञ्छा न च मे विषयेषु मनः । शान्तिमासितुमिच्छामि स्वात्मन्येव जिनो यथा॥ __ मैं न तो राम हूँ (रमन्ते योगिनः यस्मिन् स रामः – योगी जिसमें रमण करे – ऐसा महायोगी या ईश्वर), न मुझे कोई अच्छा है, न मेरा मन विषयों में लगता है। मैं तो जिनेन्द्र भगवान के समान अपनी आत्मा में ही शान्ति प्राप्त करना चाहता हूँ। - योग वाशिष्ठ के उक्त श्लोक से सिद्ध होता है कि राम-लक्ष्मण के समय में जैन तीर्थंकर आत्म-धर्म का प्रचार कर रहे थे। तभी उनके समान शान्त बनने की इच्छा राम के हृदय में उत्पन्न हुई। - मुनि श्री विद्यानन्दजी, विश्वधर्म की रूपरेखा महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-3/48 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.014025
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 2007
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year2007
Total Pages312
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size11 MB
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