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________________ उनकी शुद्धता प्रमाणित करवाना चाहते हैं। वाल्मीकि तो राजा राम के द्वारा अपनी प्रजा के रूप में सीता की मुनि सीता की शुद्धि की विस्तार से घोषणा (९६ सर्ग) सुरक्षा व्यवस्था सुनिश्चित नहीं करना आदर्श रामराज्य करते हैं एवं जन समुदाय उस पर विश्वास करता है, में किस प्रकार उचित कहा जा सकता है ? इस संदर्भ किन्तु स्वाभिमानिनी सीता पृथ्वी से प्रार्थना करती है में दण्ड विधान का नियम याद आता है कि सामान्य कि यदि उन्होंने मन, कर्म, वचन से राम के अतिरिक्त जन को दण्ड का भय दिखाकर अनुशासित करना हो किसी भी पुरुष का ध्यान नहीं किया है तो पृथ्वी अपने तो किसी बलशाली की छोटी सी त्रुटि पर अतुलनीय हृदय में उन्हें स्थान दे। तब भूतल से एक सिंहासन दण्ड दे दें, तो देखने वाला स्वतः भयभीत होकर गलती प्रकट होता है और पृथ्वी की अधिष्ठात्री देवी उन्हें उस का साहस ही नहीं करेगा। जो भी हो रामकथा का पर बिठा कर पुनः भूतल में प्रविष्ट हो जाती है। आश्रय लेकर रचना करने वाले अन्य परकालीन कवियों रामकथा जो युगों-युगों से जनमानस की प्रेरणा को भी यह बात गले नहीं उतरी तो कुछ ने इस प्रसंग का स्रोत है. में सीता निर्वासन का प्रसंग विशेष रूप को चित्रित ही नहीं किया और कुछ ने इस संदर्भ में से सामान्य स्त्रियों को विपरीत परिस्थितयों में चारित्रिक बालि की पत्नी तारा के शाप की अवधारणा की और दृढ़ता की शिक्षा देने के लिए निरूपित प्रतीत होता है। कुछ ने सीता के द्वारा रावण का चित्र बनाने का काल्पनिक जैसे कि पुरवासियों की आशंका से भी स्पष्ट है कि हमें प्रसंग जोड़ा। रामचरित में परिमार्जन हुआ या नहीं, अपनी स्त्रियों को भी ऐसी स्थिति में स्वीकारना होगा। किन्तु सीता निर्वासन के माध्यम से तत्कालीन से लेकर धर्मसूत्रकारों की दृष्टि से देखें तो व्यभिचारिणी नारी भी आधुनिक युग तक नारी की स्थिति, उसका जीवन, गर्भावस्था में पति, पुत्रादि के द्वारा सुरक्षा पाने की उसका चरित्र आदि सम्पूर्ण समाज के विवेचन का अधिकारिणी होती है। ऐसी स्थिति में पति राम नहीं विषय बनते रहे हैं। - अध्यक्ष, संस्कृत विभाग, राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर स्वाम्यादेशस्य कृत्यत्वाद्वक्तव्यत्वान्नियोगतः । कथञ्चिद्रोदनं कृत्वा यथावत्स न्यवेदयत्।।१०७ विषाग्निशस्त्र सदृशं शुभे दुर्जनभाषितम्। श्रुत्वा देवेन दुष्कीर्तिः परमं भयमीयुषा ।।१०८ सन्त्यज्य दुस्त्यजं स्नेह दोहदानां नियोगतः। त्यक्तासि देवि रामेण श्रमणेन रतिर्यथा॥१०९ स्वामिन्यस्ति प्रकारोऽसौ नैव येन स विष्णुना। अनुनीतस्तवार्थेन न तथाप्यत्यजद् ग्रहम् ॥११० तस्मिन् स्वामिनि नीरागशरणं तेऽस्ति न क्वचित्। धर्मसम्बन्धमुक्ताया जीवे सौख्यस्थितेरिव ।।१११ - पद्मपुराण ९७ संसाराद् दुःखनिर्घोरान्मुच्यन्ते येन देहिनः । भव्यास्तदर्शनं सम्यगाराधयितुमर्हसि ॥१२० साम्राज्यादपि पद्माभ तदैव बहुमन्यते। नश्यत्येव पुनः राज्यं दर्शनं स्थिरसौख्यदम् ॥१२१ तदभव्यजुगुप्सतो भीतेन पुरुषोत्तम । न कथञ्चित्त्वया त्याज्यं नितान्तं तद्धि दुर्लभम् ।।१२२ रत्नं प्राणितलं प्राप्तं परिभ्रष्टं महादधौ। उपायेन पुनः केन संगति प्रतिपद्यते ।।१२३ क्षिप्तामृतफलं कूपे महापत्ति भयंकरे। परं प्रपद्यते दुःख पश्चातापहतः शिशु॥१२४ यस्य यत्सदृशं तस्य प्रवदत्वनिवारतः । को ह्यस्य जगतः कर्तुं शक्नोति मुखबन्धनम् ।।१२५ श्रृण्वताऽपि त्वया तत्तत्स्वार्थनाशनकारणम् । पडेनेव न कर्तव्यं हृदये गुणभूषण ॥१२६ अनुरागं च वीर्यं च मारूतेर्लक्ष्मणस्य च। पतिव्रतात्वं सीताया हनूमति पराक्रमम् ॥३ कथयन्तो महाभागा जग्मुहृष्टा यथागतम्।४ - युद्ध ११२ यन्निमित्तोऽयमारम्भ कर्मणां यः फलोदयः । तं देवीं शोकसन्तप्तां द्रष्टुमर्हसि मैथिलीम् ॥२ ३. ४. महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-3/47 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014025
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 2007
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year2007
Total Pages312
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size11 MB
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