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________________ अंकुश का विधिवत् पालन पोषण करते हुए राजधर्म, स्वीकार नहीं कर लेते, मैं उसके साथ निवास नहीं कर जिनधर्म आदि की शिक्षा-दीक्षा दी जाती है। विवाह सकता हूँ। अतः समस्त देशवासी, राजाओं एवं के प्रसंग में पौण्डरीकपुर के राजा पृथु से युद्ध करके विद्याधरों की सभा का आयोजन किया जाए। राम की उनकी कन्या से विवाह करके वे पुनः माता के समीप आज्ञा से भामण्डल, विभीषण आदि राजाओं द्वारा आकर सुखपूर्वक रहते हैं। सीता से आग्रह करने पर सीता का उत्तर है - श्रीराम के सेनापति कृतान्तवक्त्र से सीता त्याग सम्भाषिता सुगम्भीरा सीतासपिहितेक्षणा। के स्थल का पता कर उस स्थान पर आए हुए नारदजी आत्माभिनिन्दनाप्राय जगाद परिमन्थरम् ।। ने उन दोनों कुमारों को देखा व उनके पूछने पर राम असज्जनवचोदावदग्धान्यंगानि साम्प्रतम्। लक्ष्मण का पूरा वृतान्त सुनाया। राम ने प्रजानुरंजन के क्षीरोदधिजलेनापि न मे गच्छन्ति निर्वृत्तिम्॥ कारण धर्मपत्नी सीता का परित्याग किया। सीता के चरित्र की अत्यधिक प्रशंसा करते हुए नारद ने - पद्मपुराण १०४. २४-५ लोकापवाद के कारण राम द्वारा सीता त्याग के विषय दुर्जनों की वाणी से जले हुए मेरे तन-मन को में बताया तो अंकुश ने कहा कि यह आचरण उनके क्षीरसागर के जल से भी शान्ति नहीं हो सकती है। कुल की शोभा के अनुरूप नहीं है। हम अयोध्या पर तदनन्तर राजाओं के अनुनय-विनय से द्रवित होकर चढ़ाई करके उन्हें जीतेंगे। यह सुनकर सीता के अत्यधिक सीता राम के पास आती है। पुनः राम द्वारा चारित्र्य उत्कण्ठित होने पर कमारों ने उससे व्याकलता का की शुद्धि का प्रश्न उठाने पर अग्निपरीक्षा का संकल्प कारण पूछा और सीता ने संपूर्ण वृतान्त कह सनाया. करती है । तब सिद्धार्थ शपथपूर्वक उनके उत्तमशील की किन्तु उन्हें युद्ध से विरत नहीं कर सकी। सेनाओं के घोषणा करते हैं और समस्त मानव और विद्याधर सीता परस्पर युद्ध के साथ ही राम का लवण के साथ और के सतीत्व को स्वीकार करते हैं। तथापि सीता राम के लक्ष्मण का लवणांकुश के साथ युद्ध हआ। दोनों द्वारा तैयार की गई चिता में प्रवेश करके अपनी शुद्धता कुमारों के जन्म का वृतान्त ज्ञान होने पर राम-लक्ष्मण प्रमाणित करती है। पृथ्वी को विदीर्ण करके जल की ने हर्षित होकर उन्हें स्वीकार किया और इसे देखकर वापी बनती है, जिसमें एक सहस्रदल कमल के मध्य सीता पुनः पौण्डरीकपुर लौट आयी। स्थित सिंहासन पर उत्तम देवियों के द्वारा सीता को (पद्मपुराण ९९-१०३ पर्व) की बिठाया जाता है एवं राम उन्हें स्वीकार करने को तत्पर होते हैं, किन्तु सीता पृथ्वीमति आर्यिका से जिनदीक्षा हनुमानादि के द्वारा सीता को पुनः स्वीकार ग्रहण कर लेती है। (वही १०४-१०५ पर्व) करने की प्रार्थना करने पर राम कहते हैं - अनघं वेदि सीतायाः शीलमुत्तचेतसः। वाल्मीकि रामायण में यद्यपि उत्तरकाण्ड को प्रक्षिप्त माना गया है और इस दृष्टि से सीता निर्वासन प्राप्ताया: परिवादं तु पश्यामि वदनं कथम्॥ पर भी एक प्रश्नचिह्न उपस्थित होता है। राम के धीरसमस्त भूतले लोकं प्रत्याययतु जानकी। गंभीर एक पत्नी परायण चित्त के साथ भी इस की ततस्तया सतं वासो भवेदेव कृतोऽन्यथा । संगति स्थापित करना दुष्कर है । तथापि युद्ध की समाप्ति - पद्मपुराण १०४. ४-५ पर राम और सीता के मिलन से लेकर राम के राज्याभिषेक यद्यपि मैं सीता को निष्पाप मानता हूँ, किन्तु एवं पुनः लोकापवाद के कारण सीता त्याग की घटनाओं जब तक पृथ्वी पर सभी लोग इसके उत्तमशील को पर दृष्टि डालना उचित होगा। महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-3/44 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014025
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 2007
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year2007
Total Pages312
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size11 MB
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