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________________ कथानायकों के आदर्श जीवन से प्रभावित होकर उन इन सबसे पाठकों को जहाँ उनके आदर्श जीवन जैसा बनने का भाव जाग्रत हुए बिना नहीं रहता। वह से सद्गुण प्राप्त करने की प्रेरणा मिलती है, वहीं यथाशक्ति वैसा ही बनने का प्रयास करने लगता है। पापाचरण से बचने की शिक्षा भी मिलती है। इस तरह जैनपुराणों की मूलकथा वस्तु 169 पुण्य पुरुषों जैनपुराण जहाँ अपने आदर्श पात्रों के उत्कृष्ट चरित्रों एवं 63 शलाका पुरुषों के आदर्श जीवन दर्शन पर द्वारा पाठकों के हृदय पटल पर, उनके समग्र जीवन पर आधारित होती है। 63 शलाका पुरुषों में 24 तीर्थंकर, ऐसी छाप छोड़ते हैं, ऐसे चित्र अंकित करते हैं जो 12 चक्रवर्ती, 9 नारायण, 9 प्रतिनारायण, 9 बलभद्र मानवीय मूल्यों के विकास में, उनके नैतिक मूल्यों और होते हैं तथा 169 पुण्य पुरुषों में 24 तीर्थंकर, 24 तीर्थंकर अहिंसक आचरण में तो चार चाँद लगाते ही हैं, उन्हें के 24 पिता, 24 मातायें, 24 कामदेव, 9 नारायण, 9 रत्नत्रय की आराधना का उपदेश देकर उन्हें पारलौकिक प्रतिनारायण, 9 बलभद्र, 9 नारद, 11 रुद्र, 12 चक्रवर्ती कल्याण करने का मार्गदर्शन भी देते हैं, निगोद से निकाल एवं 14 कुलकर होते हैं। कर मुक्ति तक पहुँचने का पथ प्रदर्शन भी करते हैं। आचार्यों ने पुराण पुरुषों का स्वरूप निर्धारित पाठकगण पद्मपुराण में राम जैसे कथा नायकों करते हुए कहा है कि - "जो पुरुष विकारों, कषायों के आदर्श जीवन से प्रभावित होकर मानवीय मूल्यों के और वासनाओं के दास न बनकर स्वावलम्बी होकर महत्व से अभिभूत होते हैं और अमानवीय कृत्य करने अपने रत्नत्रयधर्म को उज्ज्वल बनाते हुए आत्मविकास वाले मानकषायी रावण जैसे खलनायकों की नरक गति के क्षेत्र में वर्द्धमान होते हैं, उन जितेन्द्रिय मनस्वी मानवों होने जैसी दुर्दशा देखकर उन दुर्गुणों से दूर रहने का को पुराणपुरुष कहते हैं। प्रयास करते हैं। जैनपुराणों के कथानायक ये उपर्युक्त पुण्य पुरुष प्रायः सभी जैन पुराणों के कथानकों में वर्तमान ही हैं, परन्तु इनके साथ ऐसी बहुत सी उपकथायें भी मानवजन्म से पूर्व जन्मों की कहानियाँ भी होती हैं। होती हैं जो बीच-बीच में इन्हीं पुराण पुरुषों के उनके माध्यम से अपने पूर्वकृत पुण्य-पाप के फल में परिवारजनों से सम्बन्धित होती हैं तथा इनके पूर्वभवों प्राप्त ऐसी सुगतियों-दुर्गतियों के उल्लेख भी होते हैं, से सम्बन्धित होती है, जिनमें इन्हीं पुराण पुरुषों के जिनमें लौकिक सुख-दुःख प्राप्त होते हैं। इससे भी पाठक पूर्वभवों में अज्ञान और कषाय चक्र से हुए पुण्य-पाप सजग हो जाते हैं, और मानवीय मूल्यों को अपनाने के फल के अनुसार उनके चरित्रों का चित्रण होता है, लगते हैं, ताकि भविष्य में उनकी दुर्गति न हो। जहाँ बताया जाता है कि यदि इन तीर्थंकर जैसे पुराण पुरुषों से भी पूर्वभवों में जाने-अनजाने भूलें हुईं हैं तो जैनपुराणों में मानवीय मूल्यों में श्रावक के उन्हें भी सागरों पर्यंत चतुर्गति के भयंकर दुःखों को आठ मूलगुणों के रूप स्थूल हिंसा, झूठ, चोरी, भोगना ही पड़ा है। उदाहरणार्थ - भगवान महावीर ने कुशील और परिग्रह पापों का त्याग तथा मद्य-मांसमारीचि के भव में तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव के विरुद्ध र मधु का सेवन न करना बताया गया है। इनके साथ मिथ्या मत का प्रचार किया और स्वयं को तीर्थकर ही सात दुर्व्यसनों का त्याग करना बताया गया है। तुल्य बताकर अहंकार किया तो उसके फल में उन्हें भी वे सात व्यसन इसप्रकार हैं - सागरोंपर्यंत संसार में परिभ्रमण करना पड़ा। जुआ खेलना, माँस खाना, शराब पीना, वेश्या महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-1/37 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014025
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 2007
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year2007
Total Pages312
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size11 MB
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