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________________ राजस्थानी जैन सन्तों की साहित्य-साधना O डॉ. कस्तूरचन्द कासलीवाल भारतीय इतिहास में राजस्थान का महत्त्वपूर्ण उल्लेखनीय हैं। इधर जैन सन्तों का तो राजस्थान सैकड़ों स्थान है। एक ओर यहाँ की भूमि का कण-कण वीरता वर्षों तक केन्द्र रहा है। डूंगरपुर, सागवाड़ा, नागौर, एवं शौर्य के लिये प्रसिद्ध रहा है तो दूसरी ओर भारतीय आमेर, अजमेर, बीकानेर, जैसलमेर, चित्तौड़ आदि साहित्य एवं संस्कृति के गौरवस्थल भी यहाँ पर्याप्त इन सन्तों के मुख्य स्थान थे, जहाँ से वे राजस्थान में संख्या में मिलते हैं। यदि राजस्थान के वीर योद्धाओं ही नहीं, किन्तु भारत के अन्य प्रदेशों में भी विहार करके ने जन्मभूमि की रक्षार्थ हँसते-हँसते प्राणों को न्योछावर अपने ज्ञान एवं आत्मसाधना से जन-साधारण का किया तो यहाँ होनेवाले साधु-सन्तों, आचार्यों एवं जीवन ऊँचा उठाने का प्रयास करते। ये सन्त विविध विद्वानों ने साहित्य की महती सेवा की और अपनी भाषाओं के ज्ञाता होते थे तथा भाषा-विशेष से कभी रचनाओं एवं कृतियों द्वारा जनता में देशभक्ति, मोह नहीं रखते थे। जिस किसी भाषा में जनता द्वारा कर्तव्यनिष्ठा एवं नैतिकता का प्रचार किया। यहाँ के कृतियों की मांग की जाती उसी भाषा में वे अपनी रणथम्भौर, कुम्भलगढ़, चित्तौड़, भरतपुर, मंडोर जैसे लेखनी चलाते तथा उसे अपनी आत्मानुभूति से दुर्ग यदि वीरता, देशभक्ति एवं त्याग के प्रतीक हैं तो परिप्लावित कर देते। कभी वे रास एवं कथा-कहानी जैसलमेर, नागौर, बीकानेर, अजमेर, जयपुर, आमेर, के रूप में तथा कभी फागु, बेलि, शतक एवं बारहखड़ी डूंगरपुर, सागवाड़ा, टोडारायसिंह आदि कितने ही ग्राम के रूप में पाठकों को अध्यात्म-रस पान कराया करते। एवं नगर राजस्थानी ग्रन्थकारों, साहित्योपासकों एवं संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, हिन्दी, राजस्थानी एवं सन्तों के पवित्र स्थल हैं। इन्होंने अनेक संकटों एवं गुजराती आदि सभी भाषाएँ इनकी अपनी भाषा रहीं। झंझावातों के मध्य भी साहित्य की अमूल्य धरोहर को प्रान्तवाद के झगड़े में कभी नहीं पड़े, क्योंकि इन सन्तों सुरक्षित रखा । वास्तव में राजस्थान की भूमि पावन एवं की साहित्य रचना का उद्देश्य सदैव ही आत्म-उन्नति महान है तथा उसका प्रत्येक कण वन्दनीय है। एवं जनकल्याण रहा। लेखक का अपना विश्वास है राजस्थान की इस पावन भूमि पर अनेकों विद्वान कि वेद, स्मृति, उपनिषद्, पुराण, रामायण एवं सन्त हए, जिन्होंने अपनी कृतियों द्वारा भारतीय साहित्य महाभारत काल के ऋषियों एवं सन्तों के पश्चात् के भण्डार को इतना अधिक भरा कि वह कभी खाली भारतीय साहित्य की जितनी सेवा एवं उसकी सुरक्षा नहीं हो सकता । यहाँ सन्तों की परम्परा चलती ही रही. जैन सन्तों ने की है उतनी अधिक सेवा किसी सम्प्रदाय कभी उसमें व्यवधान नहीं आया। सगुण एवं निर्गुण अथवा धर्म के साधुवर्ग द्वारा नहीं हो सकी है। राजस्थान दोनों ही भक्ति की धाराओं के सन्त यहाँ होते रहे और के इन सन्तों ने स्वयं तो विविध भाषाओं में सैकड़ों उन्होंने अपने आध्यात्मिक प्रवचनों, गीत-काव्यों एवं हजारों कृतियों का सृजन किया ही, किन्तु अपने पूर्ववर्ती मुक्तक छन्दों द्वारा जन-साधारण को उठाये रखा। इस आचार्यों, साधुओं, कवियों एवं लेखकों की रचनाओं दृष्टि से मीरा, दादूदयाल, सुन्दरदास आदि के नाम को बड़े प्रेम, श्रद्धा एवं उत्साह से संग्रह भी किया। महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-3/27 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014025
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 2007
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year2007
Total Pages312
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size11 MB
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