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________________ मुनिधर्म अंगीकार करने की ही प्रेरणा देनी चाहिए। जो के लिए वे पुन: जिनवाणी माँ की शरण लेने को कहते ऐसा नहीं करता है वह निग्रह का स्थान अर्थात् दण्ड हैं, क्योंकि जिनवाणी ही गृहस्थ के लिए अपेक्षाकृत का पात्र है। फिर यदि जीव अपनी कमजोरी से मुनिधर्म सदा उपलब्ध उपदेशक और मार्गदर्शक है। को अंगीकार करने में असमर्थता व्यक्त करे तो श्रावधर्म सारांश - अन्त में अपने मंगल प्रवचन का को अंगीकार करने की प्रेरणा देनी चाहिए। सारांश बताते हुए वे धर्मस्य मूलं दया कहकर अहिंसामयी __मुनिपद का उपदेश - सम्भवतः इसी तथ्य आचरण की प्रेरणा देते हैं और अहिंसक जीवन अपनाकर को दृष्टिगत रखकर उन्होंने कहा कि “वस्त्र छोड़े बिना सम्यग्दर्शन अंगीकार करने और संयम का पालन करने मुनिपद नहीं होता है। भाईयो ! डरो मत, मुनिपद धारण से ही आत्महित होगा - ऐसा कहकर वे अपने मंगल करो।" किन्तु उनके इस कथन का यह अभिप्राय प्रवचन की पूर्णता घोषित करते हैं। कदापि नहीं था कि बिना विचार और अभ्यास के, मात्र आत्मकथ्य - हम विचार करें कि जिनवाणी भावुकता में मुनिपद को अंगीकार किया जाए। यह बात के द्वारा प्रतिपादित समस्त तत्त्वज्ञान को एक अन्यतम प्रेरणा के रूप में ही ठीक थी, क्योंकि जब उन्होंने आदर्श के रूप में कम से कम शब्दों में शास्त्रोक्त दीक्षागुरु से सीधे मुनिदीक्षा देने का निवेदन किया था, विधिपर्वक जिस प्रकार इस मंगल प्रवचन में समेटा गया तो उन्होंने उन्हें पहले क्षुल्लक दीक्षा देकर निर्ग्रन्थ है, वैसा संतुलन और सारगर्भित रूप बड़े-बड़े शास्त्रियों श्रमणाचार्य का अभ्यास कर पारंगत होने की बात कही और धुरन्धर विद्वानों, व्याख्यान वाचस्पतियों के थी और क्रमशः क्षुल्लक और ऐलक वर्षों तक अभ्यास उदबोधनों में भी इतनी समग्रता के साथ प्राप्त नहीं होता करने के बाद उन्हें मुनिदीक्षा मिली थी। स्वयं जिस है। कितना ही अच्छा होता कि यदि परमपूज्य आचार्यश्री प्रक्रिया को अपनाया हो, उसका विरोध वे भला कैसे शान्तिसागरजी मुनिराज के समस्त प्रवचनों को इसी कर सकते थे। इसीलिए मुनिधर्म की प्रेरणा देने के प्रकार संजोकर प्रकाशित किया गया होता. तो आज साथ-साथ वे श्रावक के छह आवश्यक कर्मों देवपूजा, उनके मंगल प्रवचनों के रूप में एक अमल्य निधि गुरु की उपासना, स्वाध्याय, संयम, तप और दान की समाज के पास होती। फिर भी, उनका यह एक प्रवचन प्रेरणा देते हैं और इन्हें असि, मसि, कृषि, काणिज्य, ही समाज के लिए और भव्य जीवों के लिए शिल्प और विद्या इन छह आरम्भ रूप कमों को क्षय आत्महितकारी मार्गदर्शन करने में पर्याप्त समर्थ है। करने के लिए आवश्यक बताते हैं। इसके साथ ही वे आवश्यकता है इसके एक-एक शब्द की गहराई को पुनः स्पष्ट करते हैं कि देवपूजा आदि क्रियाएँ ही व्यवहार बिना किसी पूर्वाग्रह के समझने और उसे निष्ठापूर्वक हैं, इनसे साक्षात् मोक्ष का साधन नहीं होता। वे कहते आत्मसात् करने की। हैं कि “छह आरम्भजनित कर्मों का क्षय करने के लिए उनके इस मंगल प्रवचन को इस पुनीत प्रसंग छह क्रियाओं को करने की आवश्यकता है। यह व्यवहार हार में देश की ही नहीं, विश्वभर की धर्मप्राण जनता हुआ। उससे यथार्थ में मोक्ष नहीं होता; ऐहिक सुख । : जिज्ञासापूर्वक जाने, इस दृष्टि से इसके व्यापक प्रचार मिलेगा, पंचेन्द्रिय सुख मिलेगा, परन्तु मोक्ष नहीं की महती आवश्यकता है। मिलेगा। मोक्ष किससे मिलता है ? मोक्ष केवल बी-३२, छत्तरपुर एक्सटेंशन, आत्मचिन्तन से मिलता है। बाकी किसी भी कर्म से, नंदा फार्म के पीछे, नई दिल्ली क्रिया से, कार्य से और किसी कारण से मोक्ष नहीं मिलता।” जिनवाणी शरणं- इन सब कार्यों के साधन महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-3/23 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014025
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 2007
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year2007
Total Pages312
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size11 MB
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