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________________ के त्याग की प्रक्रिया का निरूपण करते हुए उन्होंने सर्वप्रथम दर्शन मोहनीय कर्म अथवा मिथ्यात्व को छोड़ने की प्रेरणा दी और सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के लिए प्रेरित किया । सम्यग्दर्शन को पाने के लिए उपयोगी साहित्य के रूप में उन्होंने दो टूक शब्दों में प्रमुखता से युगप्रधान आचार्य कुन्दकुन्द के परमागम रूप ग्रन्थों को नामोल्लेखित किया। इनके साथ ही सम्यक्त्व में बाधक परिणामों की विशेषता को जानने के लिए उन्होंने करणानुयोग के प्रतिनिधि ग्रन्थ गोम्मटसार की भी सम्यग्दर्शन के लिए उपादेयता प्ररूपित की। निश्चयव्यवहार का अभूतपूर्व संतुलन उनके इस प्ररूपण में दृष्टिगोचर होता है। मध्यम मंगल विधान - इतना प्ररूपण करने के बाद आचार्यश्री शान्तिसागरजी मुनिराज पुनः मध्य मंगल के रूप में ॐ सिद्धाय नमः का मंगलघोष करते हैं। यह प्रकरण के परिवर्तन का भी सूचक है और मंगल-विधान को भी इंगित करता है । आत्मचिन्तन ही सर्वोत्कृष्ट कार्य है - इस प्रकार मध्यमंगल करने के बाद आचार्यश्री शान्तिसागरजी मुनिराज भव्य जीवों को आत्महित साधन के लिए कुछ प्रायोगिक बिन्दुओं का प्ररूपण करते हैं । इनके अन्तर्गत उन्होंने सर्वाधिक वरीयता आत्म- - चिन्तन को प्रदान की है। परमानन्द स्तोत्र में भी कहा गया है कि उत्तमा स्वात्मचिन्ता स्यात् अर्थात् निज आत्मतत्त्व का चिन्तन जीवन का सर्वोत्कृष्ट कार्य है। व्यवहारधर्म के रूप में तीर्थयात्रा आदि धार्मिक कार्यों को वे उत्कृष्ट पुण्यबन्ध का साधन तो बताते हैं, किन्तु उसे कर्म निर्जरा का साधन नहीं मानते। वे कहते हैं कि “फिर आपको क्या करना चाहिए ? दर्शनमोहनीय कर्म का क्षय करना चाहिए। किससे उसका क्षय होता है ? एक आत्मचिन्तन से होता है। कर्म-निर्जरा किससे होती है ? आत्मचिन्तन से होती है। अनन्त कर्मों की निर्जरा के लिए आत्मचिन्तन साधन है। आत्मचिन्तन किए बिना कर्मों की निर्जरा होती नहीं, केवलज्ञान होता नहीं, केवलज्ञान के बिना मोक्षप्राप्ति नहीं है।" Jain Education International आत्मचिन्तन के प्रायोगिक निर्देश - इसके बाद वे आत्मचिन्तन के लिए कुछ प्रायोगिक निर्देश करते हुए कहते हैं कि "चौबीसों घण्टों में छह घड़ी उत्कृष्ट कही गई है, चार घड़ी मध्य मानी गई है, दो घड़ी जघन्य कही गई है। जितना समय मिले, उतना समय आत्मचिन्तन करें। कम से कम १० ० - १५ मिनट तो करें । आत्मचिन्तन किए बिना सम्यक्त्व प्राप्ति नहीं होती है और सम्यक्त्व प्राप्ति के बिना कर्मों का बन्धन नहीं छूटता, जन्म-मरण नहीं छूटता।” संयम की प्रेरणा - इस प्रकार मोक्ष महल की पहली सीढ़ी सम्यग्दर्शन का निर्देश एवं प्रेरणा दोनों प्रदान करते हुए आचार्यश्री शान्तिसागरजी मुनिराज बताते हैं कि सम्यग्दृष्टि जीव ही वास्तव में संयम को अंगीकार कर सकता है। वे कहते हैं कि "सम्यक्त्व होने पर संयम के पीछे लगना चाहिए। यह चारित्र मोहनीय कर्म का उदय है कि सम्यक्त्व होकर ६६ सागर तक रहता है, परन्तु मोक्ष नहीं होता। क्यों ? चारित्रमोहनीय कर्म का उदय होने से । इसलिए चारित्रमोहनीय कर्म का क्षय करने के लिए संयम को ही धारण करना चाहिए । संयम के बिना चारित्रमोहनीय कर्म का नाश नहीं होता। इसलिए कैसे भी हो, यथाशक्ति संयम अवश्य धारण करना चाहिए। इसके लिए डरो मत। " संयम को कर्म - निर्जरा का प्रधान कारण बताते हुए वे इसे केवलज्ञान का साधक एवं सिद्धि प्रदायक बताते हैं । इतना कथन करने के बाद आचार्यश्री पुनः एक बार ॐ सिद्धाय नमः कहकर एक और मध्यमंगल करते हैं । यह मध्यमंगल स्पष्टरूप से प्रकरण परिवर्तन का परिचायक है, क्योंकि अब वे समाधि की अवस्था का प्रेरक निरूपण कर रहे हैं। वे कहते हैं कि गृहस्थों को सविकल्प समाधि होती है, जबकि मुनिराजों को पूर्ण निर्विकल्प समाधि होती है। मुनिपद के लिए निर्ग्रन्थता को अंगीकार करने की प्रेरणा वे आचार्य अमृतचन्द को लगभग चरितार्थ करते हुए देते हैं। आचार्य अमृतचन्द ने पुरुषार्थसिद्ध्युपाय ग्रन्थ में यह स्पष्ट रूप से कहा है कि भव्य जीवों को सर्वप्रथम महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-3/22 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014025
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 2007
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year2007
Total Pages312
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size11 MB
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