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________________ सब उसके अगले भव में मोक्ष गये। उस जन्म असर नहीं पड़ता। क्योंकि वे एक जाति के हैं। एक में स्वर्ग गये और फिर वहाँ से मनुष्य जन्म लेकर भगवान क्षेत्रावगाही हैं, तथापि उनकी स्वतंत्र सत्ता कभी खत्म आदिनाथ के साथ बारी-बारी से मोक्ष गये। एक मेढक नहीं होती। ऐसे ही सिद्ध भगवान अनादि काल से मोक्ष केवल एक फूल की पंखुड़ी चढ़ाने के लिए ले जा रहा जा रहे हैं। वे सब एक ही क्षेत्रावगाही होते हुए भी उनके था, रास्ते में मरकर वह स्वर्ग चला गया। आप लोग ज्ञानादि गुण, चैतन्य गुण एक सत्तात्मक होते हुए भी तो अष्ट द्रव्य से पूजा करते हैं, जो आठों कर्मों को नाश वे अपनी सत्ता से कभी अलग नहीं होने देते। करने वाले हैं। ___जैसे छह द्रव्य हैं। ये छह द्रव्य अपने स्वभाव महानुभावो, जैन पारिभाषिक शब्द जो होते हैं, को कभी नहीं छोड़ते। जीव में चैतन्य गुण है। 'चेतना वे सब स्वतंत्र होते हैं। जैसे हम ‘आदिनाथ' कहते हैं। लक्षणो जीव:' पुद्गल रूप, रस, गंध, वर्ण युक्त है। इसमें 'नाथ' शब्द 'न' और 'अर्थ' शब्दों से बना ये मिट्टी युक्त होते हुए भी ये न तो कभी आत्मा का है। जिसका आदि और अंत नहीं है, उसका मध्य भी रूप बनते हैं और न ही आत्मा अपना चैतन्य गुण इनमें नहीं है यानी अनादि है। जैन धर्म के अंदर छह द्रव्य आने देता है। इसलिए तत्त्वार्थ सूत्र में एक सूत्र आया माने गये हैं - जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश - 'द्रव्याश्रया निर्गुणा गुणाः' जो द्रव्य के आश्रितभूत और काल । आदिनाथ भगवान का जब जन्म हुआ, गुण हैं, वही गुण है, वही शाश्वत है। यदि गुण के अंदर तो देवों ने 'जय जीवेत' शब्दघोष किया। यानी गुण आ जाये तो अनवस्था दोष आ जायेगा। अनवस्था 'जीवमात्र की विजय हो.., जीवमात्र की विजय हो।' दोष किसे कहते हैं? जैसे किसी ने दीपक जलाकर वे इसलिए कहा कि इस युग के वे प्रथम तीर्थंकर थे लाया । तो पूछते हैं कि दीपक कहाँ से जलाकर लाये? और उन्होंने ही इहलोक और परलोक की बातें बताई। तो बोलते हैं कि हमने पड़ोसी के दिये से इस दिये को हमारे आठ कर्म हैं। उनके १४८ भेद हैं तथा जलाकर लाया। और जब पड़ोसी से पूछे कि तुमने कहाँ इनके भी अनेक भेद हैं। इन सारे भेद-प्रभेदों का, से जलाया? तो वह बोलता है कि हमने भी अपने दूसरे आत्मा का विविधि रूप से सिद्धचक्र के पाठ में वर्णन पड़ोसवाले घर के दिये से जलाया है। इस तरह से है। जैसे चेतन शब्द है। चेतन एक संवेदनशीलता है। उसका कोई अंत ही नहीं मिलेगा। इसलिए यहाँ पर चेतन किस कहें? जैसे आपके शरीर के किसी हिस्से कहते हैं कि जीव और पुद्गल अपने-अपने स्वभाव पर किसी ने स्पर्श किया, तो आपका हाथ झट से उस को कभी छोड़ते नहीं हैं। जगह पर चला जाता है कि किसने स्पर्श किया। अथवा धर्म द्रव्य - 'इस आकाश में धर्म द्रव्य ठसाठस शरीर भर में कहीं भी खाज-खुजली हो रही हो, तो भी भरा हुआ है। जो हम धर्म ध्यान करते हैं, ये धर्मद्रव्य हाथ तुरंत अंधेरे में भी उस जगह पर चला जाता है। नहीं है, ये एक वस्तु है। ये किसी शास्त्रों में नहीं लिखा तो हम लोग हर आत्मा को स्वतंत्र मानते हैं। और मुक्त गया है सिर्फ जैन शास्त्रों में लिखा गया है। और इसके होने के बाद भी उनकी स्वतंत्र सत्ता नष्ट नहीं होती। लिए साइंसवालों ने किसी वैज्ञानिक शब्द का प्रयोग जैसे एक कमरे में अनेक दीपक जला दिये। यदि उनमें किया है। जैसे पानी में मछली इधर-उधर तैरती रहती से एक दीपक को हटा दिया, तो बाकी के दीपकों की है। और जहाँ पानी नहीं है, वहाँ मछली नहीं जा रोशनी नष्ट नहीं होती। और असंख्य दीपक जला दिये सकती। पानी मछली को इधर-उधर घूमने का कारण गये हों, तो भी उन दीपकों की रोशनी एक-दूसरे का है। हाथ-पैर हिलाना, डुलाना, जाना-आना एक धर्म विरोध नहीं करती। उनका एक-दूसरे के प्रति कोई बुरा द्रव्य इस पृथ्वी मंडल पर है। वो हमारे सारे द्रव्यों को महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-3/3 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014025
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 2007
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year2007
Total Pages312
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size11 MB
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