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________________ आचार्य ने खण्डन कर दिया। भक्ति में ही सारे आ जाते नहीं है। ज्ञान-दर्शन से कम नहीं है। सम्यग्दर्शन की हैं - ज्ञान, दर्शन, तप, संयम। एक सिद्ध भगवान की प्राप्ति जिनेन्द्र बिम्ब के दर्शन से होती है। धवला में यहाँ भक्ति में, सिद्धचक्र की भक्ति में सब आ जाते हैं। तक लिखा कि जो कर्म और किसी से नहीं कटते हैं जितने भी शास्त्रों में अंतरंग तप. बहिरंग तप, वे एक जिनबिम्ब के दर्शनमात्र से, भक्ति से कट जाते प्रतिक्रमण, प्रायश्चित बताये गये हैं. इनके बजाय यदि हैं, ढीले हो जाते हैं । यहाँ तक कह दिया कि निकाचित कोई मात्र भक्ति करता है अर्थात जिसके कंठ में, जिसके कर्म भी ढीले हो जाते हैं और क्या बात बताये? हाथ में भक्ति है, उसके हाथ में मुक्ति है, मुक्ति का अंकर जयधवला के छठे पृष्ठ में वीरसेन आचार्य ने लिखा है है। इतनी महान शक्ति है भक्ति में। हम रोज ही 'णमो कि शुभ और शुद्ध साथ-साथ चलते हैं। शुद्धभाव है सिद्धाणं' बोलते हैं। बहुतों की कल्पना है कि परमात्मा तो शुभभाव भी उसके पीछे है। कैसे? जैसे लकड़ी किसी का भला करता है, किसी का बुरा करता है। जलाते हैं तो आग के साथ थोड़ा सा धुंआ भी निकलता नाना तरह के संसार में कर्तत्वभाव को लेकर बैठे हैं. है। ऐसे ही शुभ और शुद्ध ये दोनों भाव साथ-साथ परन्त सिद्धों के गुण-भावना को हम भाते हैं, भक्ति चलते हैं और दोनों कर्म नाश के निमित्त बनते हैं। बीज करते हैं. उनका नाम लेते ही हमारे सारे कर्म अपने आप बो रहे हैं फसल के लिए, पर उसके साथ घास भी उग पिघल जाते हैं, नष्ट हो जाते हैं। जैसे - मोर पक्षी के आती है। वे पुण्य प्रकृतियाँ भी अपने आप उसके साथ बोलते ही सर्प अपने बिल में घुस जाता है। गरुड पक्षी लगी हुई हैं । इसलिए आपका ध्येय यही हो कि हे सिद्ध को देखकर सांप की जान उड जाती है। वैसे ही भगवान भगवन् ! हम आपके जैसा ही बनना चाहते हैं, आपके के दर्शन और पूजा-भक्ति से असंख्यात कर्मों की गुणों को ग्रहण करना चाहते हैं। निर्जरा एक-एक क्षण में हो जाती है। ये भी ध्यान है। जब हम साधु लोग आहार के लिए निकलते ‘परमात्म-प्रकाश' में तथा वसुनंदी आचार्य ने 'वसुनंदी हैं, तो पहले 'सिद्ध भक्ति' बोलते हैं – 'हे भगवन् ! श्रावकाचार' में इसे भी एक प्रकार का ध्यान बताया हम आप जैसा निराहारी बनना चाह रहे हैं, पर मजबूर है। जो मंत्रपूर्वक पूजा करते हैं, भक्ति करते हैं, उसको होकर आहार के लिए जा रहे हैं।' जैन धर्म निवृत्ति भी उन्होंने ध्यान कहा है। ध्यान सिर्फ आँख मूंदकर प्रधान धर्म है। प्रवृत्ति के लिए इसके यहाँ कोई स्थान बैठने को नहीं कहते। एकाग्रता से एक क्षण के लिए नहीं है। घर को भूल गये, परिवार को भूल गये, पैसे को, चेक आदिनाथ भगवान द्वारा उनके पिछले जन्म में को, टेलीफोन को यानी सारे संसार की बातों को भूल एक चारणऋद्धिधारी मुनिराज को आहार देते समय गये, थोड़ी देर के लिए खाना-पीना सब कुछ भूलकर वहाँ पर बंदर, नेवला, जंगली सुअर ये जो जंगली प्राणी एक लक्ष्य, पवित्र उद्देश्य आपका सिद्ध भगवान की थे, उन प्राणियों के मन में ये भाव पैदा हआ कि यदि पूजा के लिए रखो - यह भी एक प्रकार का ध्यान है। हम भी मनुष्य होते तो हम भी मुनिराज को आहार देते। थोड़ी देर आप शांतचित्त से बैठकर भक्तिभाव इसी भावना को भाते वे मर गये। मात्र इस प्रकार का से, मन-वचन-काय से पूजा-पाठ, भक्ति करते हैं, तो भाव पैदा होने से वे अगले जन्म में भरत और बाहुबली मन प्रसन्न और एकाग्र हो जाता है। 'ध्यानाग्निः सर्व आदि होकर जन्मे। केवल मन-वचन-काय से कर्माणि भस्मसात् कुरुते क्षणात्' कहने का तात्पर्य है अनुमोदना की, करे-धरे कुछ नहीं। सोचो, महापुराण कि जो सिद्ध भगवान आठ कर्मों से मुक्त होते हैं, उन में वर्णन किया है कि चारणऋद्धिधारी मुनि को आहार भगवान का ध्यान करना भी किसी तपश्चर्या से कम देते समय जो-जो जीव अनुमोदना करने वाले थे, वे महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-3/2 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014025
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 2007
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year2007
Total Pages312
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size11 MB
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