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________________ निरन्तर मेरे भीतर विद्यमान रहते हैं। कभी तीव्र, कभी टोडरमलजी ने भी मोक्षमार्गप्रकाशक में मिथ्यात्व और मन्द, कभी ज्ञात रूप में, कभी अज्ञात रूप में, कभी कषाय का सामान्यपने एक नाम कषाय कहा है, उन्होंने शुभ जाति के, कभी अशुभ जाति के, राग-द्वेष, बैर- स्पष्ट कहा है जिनको बन्ध न करना हो वो कषाय मत प्रीति आदि दूषित मनोवृत्तियों के सम्मिलन से मेरी करो। यहाँ एक प्रश्न उपस्थित होता है कि मिथ्यात्व चेतना में जो प्रदूषण उत्पन्न होता है, उसी का नाम की उत्कृष्ट स्थिति सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर है, जबकि कषाय है। इस प्रकार योग और कषाय दोनों मेरे साथ कषाय की नहीं, तब मिथ्यात्व में इतनी स्थिति कौन अनवरत रूप से लगे हुए हैं और इसी का फल है कि डाल सकता है। इस संबंध में आचार्य वीरसेन स्वामी प्राणी निरन्तर कर्म का बन्ध करता रहता है। ने उत्तर दिया है कि मिथ्यात्व की उत्कृष्ट स्थिति भी तीव्र यहाँ प्रश्न उपस्थित है कि तत्त्वार्थ सूत्रकार ने कषाय परिणामों से होती है। कर्म बन्ध की प्रक्रिया में मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, इसी प्रकार धवल पुस्तक १२/२८८/१४ में कषाय, योग-ये पाँच बन्ध के कारण बतलाये हैं । उक्त भी बन्ध के चार भेदों में योग और कषाय इन दो प्रत्ययों बन्ध के हेतुओं में गोम्मटसार कर्मकाण्ड की गाथा संख्या से चारों प्रकार का बन्ध माना है अर्थात् स्थिति और २५७, २९६ में 'जोगा पयडिपएसा' इत्यादि के अनुसार अनुभाग का कारण कषाय स्वीकारा है और प्रकृति यह जीव योग से प्रकृति और प्रदेश बन्ध को तथा कषाय और प्रदेश बन्ध में योग को स्वीकारा है।। से स्थिति और अनुभाग बन्ध को करता है, किन्तु जो सम्यक्त्व की प्राप्ति में मिथ्यात्व को तोड़ना जीव योग और कषाय रूप से परिणमित नहीं है और आवश्यक है, परन्तु उसका टूटना अनन्तानुबन्धी के जिनके योग और कषाय का उच्छेद हो गया है, उनके मन्दोदय (विशुद्धि) के बिना नहीं होता। प्रथमोशम कर्म बन्ध की स्थिति का अन्य कारण नहीं पाया जाता सम्यक्त्व की उत्पत्ति में जो पाँच लब्धियाँ कही गई हैं है। इसका अर्थ है कि जहाँ योग और कषाय नहीं हैं वहाँ उनके वर्णन से स्पष्ट है कि अनन्तानुबन्धी के मन्दोदय कर्म बन्ध भी नहीं है अर्थात् चारों बन्ध में मिथ्यात्व की (विशुद्धि) से ही मिथ्यात्व की स्थिति तथा ज्ञानावरणादि कारणता का विधान नहीं है। अन्य कर्मों की स्थिति भी केवल अन्त:कोड़ाकोड़ी रह इसी बात को सिद्ध करने के लिए तत्त्वार्थ- जाती है, तभी वह प्रायोग्य लब्धि कहलाती है और इस राजवार्तिक और श्लोकवार्तिक में भी कषाय को ही विशुद्धि को ही विशुद्धि लब्धि कहते हैं। इसलिए यह बन्ध का हेतु माना है। अब प्रश्न है कि जब चारों प्रकार कहा जा सकता है कि मिथ्यात्व को तोड़ना है तो उसके के बन्ध में मिथ्यात्व कारण नहीं है तो वह क्या करता पहले अनन्तानुबन्धी कषाय को मन्द करना होगा। है। इसका उत्तर है कि मिथ्यात्व प्रकृति मोह कर्म में कषाय की तीव्रता में किन्हीं भी प्रकृतियों की न स्थिति अपना सर्वश्रेष्ठ महत्व रखती है। अनादि से अब तक घटेगी और अनुभाग घटेगा। अत: यह स्पष्ट है कि कर्म के अनन्त संसार में जीव का भ्रमण इसी मिथ्यात्व बन्ध की प्रमुख भूमिका कषाय और योग निवर्हन करते प्रकृति के कारण है तथापि वह अकेली नहीं रहती, हैं और कषायोत्पत्ति का मुख्य कारण विपरीत श्रद्धानरूप अनन्तानुबन्धी कषाय के उदय का भी उसके साथ पूर्ण मिथ्यात्व है। अत: जब तक प्राणी कषाय (मिथ्यात्व) सहयोग है, परन्तु कषाय (मिथ्यात्व) का काम स्थिति- करेगा तब तक कल्याण संभव नहीं है। अनुभाग रूप है, दोनों का कार्य विभाजन है, तभी वे दो हैं। यदि दोनों का कार्य एक ही प्रकृति कर सकती तो दोनों एक ही हो जाती दो नहीं रहती। मिथ्यात्व का - प्राचार्य, श्री दिगम्बर जैन आचार्य कार्य अतत्त्व-श्रद्धानरूप परिणाम बनाना है। पण्डित संस्कृत महाविद्यालय, सांगानेर, जयपुर महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-2/72 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014025
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 2007
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year2007
Total Pages312
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size11 MB
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