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________________ जैनदर्शन कर्मबन्ध प्रक्रिया । डॉ. शीतल चन्द्र जैन जैन दर्शन के अनुसार यह विश्व छह द्रव्यों का और अनुभाग बन्ध होता है। यह जीव योग से प्रकृति समुदायरूप है, इसमें जीव द्रव्य अमूर्तिक होते हुए भी और प्रदेश बन्ध को तथा कषाय से स्थिति और अनुभाग पुद्गल के सम्पर्क से कथंचित् मूर्तिक भी माना जाता बन्ध को करता है, किन्तु जो जीव योग और कषाय है और पुद्गल द्रव्य तो मूर्तिक ही है। विकृति भी इन रूप से परिणमित नहीं है और जिनके योग और कषाय दोनों के परस्पर संयोग के निमित्त से होती है। जिनागम का उच्छेद हो गया है, उनके कर्म बन्ध की स्थिति का में यह स्पष्ट वर्णित है कि जीव को अपने परिणामों के अन्य कारण नहीं पाया जाता अर्थात् जहाँ योग और निमित्त से कर्म बन्ध होता है और कालान्तर में उन्हीं कषाय नहीं है, वहाँ कर्म बन्ध भी नहीं है। चारों बन्ध कर्मों के उदय के अनुसार संसारी जीव का परिणमन में मिथ्यात्व की कारणता का विधान नहीं है। तब होता है। शुभ-अशुभ कर्म के आगमन को आस्रव मिथ्यात्व को बन्ध के कारणों में क्यों गिनाया गया है। कहते हैं और आने वाले कर्म का आत्मा के साथ स्पष्ट है कि मिथ्यात्व मोह कर्म में सर्वश्रेष्ठ स्थान रखता परस्पर मिल जाना बन्ध है। जैन दर्शन में कर्म बन्ध की है, तथापि वह अकेला न रहकर अनन्तानुबन्धी कषाय प्रक्रिया का सूक्ष्म वैज्ञानिक विश्लेषण किया है। इस के साथ है, इसलिए योग के बिना कर्म जीव की ओर संबंध में जैनाचार्यों ने जितनी गवेषणा की है उतनी कहीं आकर्षित नहीं होता और कषाय के बिना वह आत्मा और नहीं है। कर्म कराने के लिए और उसका फल के साथ ठहर नहीं सकता। इसप्रकार देखा जाये तो योग निर्धारित करने, देने के लिए जिनके पास ईश्वर का और कषाय - ये दोनों ही जीव को कर्म के साथ सहारा था, उन्हें ऐसी गवेषणाओं की शायद आवश्यकता अनुबन्धित करने में प्रमुख भूमिका निभाते हैं। भी नहीं थी। जैन दर्शन के अनुसार कर्म के द्रव्य को जीव के मन, वाणी और शरीर की प्रवृत्तियों को चार विशेषताओं के साथ कहा है। कर्म का द्रव्य ही योग कहते हैं और उसकी चेतना में उठने वाली विकार प्रदेश है, उसकी जाति स्वभाव ही प्रकृति है । वह कितने की तरंगों का नाम ही कषाय है। इनमें से संसार का समय के लिए बंधता है, यह उसकी स्थिति है। और कोई भी प्राणी एक क्षण के लिए भी योग को रोक नहीं उसमें जीव को फल देने की जो शक्तियाँ हैं, उन्हें सकता। शरीर है तो उसमें हलन-चलन होगा ही, वाणी अनुभाग कहा जाता है। प्रत्येक कर्म में आगमन से है तो प्रगट/अप्रकट उसका कार्य होता ही रहेगा और लेकर फल देकर झड़ जाने तक ये चारों गुण अनिवार्य मन के बारे में तो कुछ कहने की आवश्यकता ही नहीं रूप से रहते हैं। है। होश में और बेहोश में, उठते-बैठते, सोते-जागते प्रस्तुत आलेख में कर्मबन्ध की प्रक्रिया - यह सब समय स्थूल या सूक्ष्म रूप से हमारी इन तीन प्रमुख रूप से विचारणीय है। वस्तुत: करुणानुयोग के शक्तियों का सक्रियपना तो होता ही रहता है। फल अनुसार यदि देखा जाये तो जीव में कर्मबन्ध करने के स्वरूप आस्रव उसका आना भी लगातार हर समय लिए योग और कषाय -- ये दो शक्तियाँ प्रमुख होती होता रहता है। हैं। योग से प्रकृति, प्रदेश बन्ध तथा कषाय से स्थिति कषाय मेरे मानसिक विकारों का नाम है, वे भी महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-2/71 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014025
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 2007
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year2007
Total Pages312
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size11 MB
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