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________________ चार्वाक दर्शन के अतिरिक्त सभी भारतीय ४०० तक मानते है । यूनानी दार्शनिकों की जिज्ञासा का दर्शनों ने आत्मा को माना है और आत्म-तत्व की मूल लक्ष्य था – उस सत्य-तथ्य की अन्वेषणा करना अपनी-अपनी दृष्टि से सिद्धी भी की है । आत्मा की जिससे विश्व की सभी वस्तुएं निर्मित हुई हैं। यूनानीदर्शन सत्ता के संबंध में मतभेद नहीं है, हाँ आत्मा के स्वरूप में प्रमुख रूप से दो परम्पराएँ हैं -- सुकरात से पूर्व और के संबंध में अवश्य ही विचार-भेद रहा है । आत्म- · सुकरात से ऊतर । सुकरात से पूर्व यूनान में चार महान् तत्व के साथ कर्मवाद और परलोक की मान्यता जुड़ी दार्शनिक थे-भौतिकवादी थेल, बुद्धिवादी पाइथोगोरस, हुई है । चार्वाक को छोड़कर सभी भारतीय दर्शनों ने परिवर्तनवादी हेराक्लित और सोफीवाद | पाइथेगोरस कर्मवाद और परलोक को माना है । बौद्धदर्शन ने दार्शनिक के साथ बहुत बड़ा गणितज्ञ भी था। उसे आत्मा आत्मा को स्वतंत्र द्रव्य नहीं माना है । रूप, वेदना, की अमरता पर, कर्मो के फल पर और पुनर्जन्म के सिद्धान्त संज्ञा, संस्कार और विज्ञान इन पाँच स्कंधों के समुदाय पर विश्वास था। पाइथोगोरस भारत में भी आया था और का नाम आत्मा है । प्रत्येक आत्मा नाम रूपात्मक जैन धर्म के सिद्धान्तों से अत्यधिक प्रभावित हुआ था है । यहाँ रूप से तात्पर्य शरीर के भौतिक भाग से है । परिवर्तनवादी हेराक्लित महावीर और बुद्ध के समय और नाम से तात्पर्य मानसिक प्रवतियों से है। वेदना, हुए थे। उनका मानना था कि जीवन परिवर्तनशील है संज्ञा, संस्कार और विज्ञान ये नाम के भेद हैं । इन पाँच और जगत की प्रत्येक वस्तु प्रतिपल -प्रतिक्षण परिवर्तित स्कंधों की परंपरा निरन्तर चलती रहती है, अतः आत्मा होती रहती है । हेराक्लित का परिवर्तनवाद बुद्ध के के अभाव में भी जन्म, मरण और परलोक की व्यवस्था क्षणिकवाद और जैन दर्शन की पर्याय दृष्टि से मिलताबन जाती है। जुलता है। सोफी सन्त का सिद्धान्त था कि सत्य के दो भारत में वेदान्त दर्शन का चरम विकास मध्य भेद हैं - रूढ़ि और वास्तविक । रूढ़ि सत्य की अपेक्षा युग में हुआ । उसके पश्चात् भक्त संप्रदायों ने जन्म वास्तविक सत्य श्रेष्ठ हैं । उसे प्राप्त करना ही एक मात्र मानव-जीवन का लक्ष्य है । ये विचार वेदान्त के सत्ता लिया जिससे भारतीय दर्शन कर्मयोगी और ज्ञानयोगी न रहकर भक्तिवादी दर्शन हो गया । मुस्लिम शासकों के व्यवहारिक सत्ता और पारमार्थिकसकता, बुद्ध के के निरन्तर प्रहारो से हमारे दर्शन में नया मोड़ आया । संवृतिसत्य और परमार्थ सत्य और जैनदर्शन के व्यवहारनय और निश्चयनय से मिलते जुलते हैं। सुकरात संत कबीर ने चौदहवीं शताब्दी में सगुण पूजा का ने यूनान में सर्वप्रथम यह उद्घोषणा की कि विज्ञान ही विरोध कर निर्गुण उपासना को महत्व दिया । इसका धर्म है अर्थात् जो कुछ भी विचार है वही आचार है। प्रभाव जैन परंपरा पर भी पड़ा और वीर लोंकाशाह ने प्लेटो सुकरात का शिष्य था । उसका अभिमत था कि मूर्ति-पूजा के विरोध में स्वर बुलंद किया । उसी के जब तक राज्य के शासनसूत्र दार्शनिकों के हाथों में नहीं परिणामस्परूप स्थानकवासी संप्रदाय का जन्म हुआ। आयेंगे तब तक समाज और राष्ट्र से अन्याय और अनीति सौराष्ट्र के स्वामी दयानंद सरस्वती ने भी मूर्ति-पूजा का दूर नहीं हो सकेगी। इसी विचार के आधार पर प्लेटो विरोध किया जिसके फलस्वरूप आर्य समाज संस्था ने युटोपिया की कल्पना की । जिसका तात्पर्य था, का प्रादुर्भाव हुआ । स्वामी विवेकानंद ने व्यवहारिक दार्शनिकों का राज्य । प्लेटो का शिष्य अरस्तु दर्शन को प्रस्तुत किया । पं. श्रीराम शर्मा ने वैज्ञानिक था । वह सुकरात की तरह यथार्थवादी नहीं था और न अध्यात्मवाद का प्रतिपादन किया । प्लेटो के समान बुद्धिवादी ही, किन्तु वह वस्तुवादी था। विश्व के अन्य दर्शन - वह दार्शनिक कम किन्तु वैज्ञानिक अधिक था । अरस्तु यूनानीदर्शन भी विश्व का एक प्राचीन दर्शन के पश्चात् यूनानी दर्शन की गति शिथिल हो गई। है। इतिहासकार यूनानीदर्शन का प्रारंभ ई.पू. ७०० से हजरत मुहम्मद के जन्म से पहले अरब में महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-2/66 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014025
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 2007
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year2007
Total Pages312
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size11 MB
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