SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 169
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ असंख्यात समुद्र एवं द्वीप हैं। उनमें ढाई द्वीप - जम्बूद्वीप, लवण समुद्र, कालोदधि समुद्र और पुष्करार्ध इतने क्षेत्र को अढाई द्वीप कहते हैं। जिसका विस्तार ४५ लाख योजन है एवं इसी में मनुष्य पाये जाते हैं। इसके आगे नहीं। जहाँ असि, मसि, कृषि, वाणिज्य, शिल्प और विद्या आदि छह कर्मों की प्रवृत्ति होती हैं, वे कर्मभूमि कहलाती हैं। ढाई द्वीप में एक मेरू सम्बन्धी ६ भोगभूमि तो ५ मेरू सम्बन्धी ३० भोगभूमियाँ है । यहाँ जीव कल्पवृक्षों के द्वारा अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं। आठवाँ द्वीप नन्दीश्वर द्वीप है। जिसमें ५२ अकृत्रिम चैत्यालय हैं। उसके आगे कुण्डलवर द्वीप में ४, रुचकवर द्वीप में ४ - इसप्रकार मध्यलोक में ४५८ अकृत्रिम चैत्यालय हैं। पृथ्वी से ७९० योजन से लेकर ११० योजन अर्थात् ९०० योजन पर्यन्त ज्यार्तिलोक है। यहाँ तारा, सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र, बुध-वृहस्पति-मंगल और शनि के विमान क्रमशः ७९०, १०, ८०, ४, ४, ३, ३, ३, और ३ योजन ऊपर हैं। ढाई द्वीप के ज्योतिषी देव निरंतर मेरू की प्रदक्षिणापूर्वक परिभ्रमण करते हैं। उसी ढाई द्वीप में घड़ी, घण्टा, प्रहर, दिवस आदि व्यवहार काल होता है। जम्बूद्वीप में २ चन्द्रमा, २ सूर्य, लवणोदधि में ४ चन्द्रमा, ४ सूर्य, धातकी खण्ड में १२ चन्द्रमा, १२ सूर्य, कालोदधि में ४२ चन्द्रमा, ४२ सूर्य और पुष्करार्ध में ७२ चन्द्रमा, ७२ सूर्य हैं। उनमें भरत क्षेत्र से बाहरी भाग में उस चार क्षेत्र में सूर्य के १८४ मार्ग होते हैं। चन्द्रमा के मात्र १५ । जम्बूद्वीप के भीतर कर्क संक्रान्ति के दिन जबकि दक्षिण अयन का आरम्भ होता है, तब निषध पर्वत के ऊपर प्रथम मार्ग में सूर्य प्रथम उदय होता है, तब सूर्य के विमान में स्थित निर्दोष वीतराग जिनेन्द्र की अकृत्रिम प्रतिमा का अयोध्या नगरी में स्थित भरत क्षेत्र का चक्रवर्ती निर्मल सम्यक्त्व अनुराग से अवलोकन कर पुष्पांजलि व अर्ध्य समर्पण करता है के 1 Jain Education International मध्यलोक के ऊपर ऊर्ध्वलोक है। इसमें सौधर्म ईशान, सनत्कुमार माहेन्द्र, ब्रह्म - ब्रह्मोत्तर, लांतव- कापिष्ठ, शुक्र-महाशुक्र, शतार- सहस्रार, आनत-प्राणत, आरण और अच्युत नामक १६ स्वर्ग हैं। वहाँ से नौ ग्रैवेयक, नौ अनुदिश और पाँच अनुत्तर विमान हैं। इनमें सौधर्म युगल में ३१, सनत्कुमार युगल में ७, ब्रह्म युगल में ४, लान्तव युगल में २, शुक्र युगल में १, शतार युगल में १, आनत युगल में ३, आरण युगल में ३, प्रत्येक तीनों ग्रैवेयक में ३-३, नव अनुदिशों में एक, पाँच अनुत्तरों में एक ऐसे कुल ६३ पटल हैं। इनमें स्वर्ग सम्बन्धी ८४ लाख ९७ हजार २३ विमान हैं। उन विमानों में उतनी ही संख्या में ८४,९७,०२३ प्रमाण सुवर्णमय अकृत्रिम जिन चैत्यालय हैं । १६ स्वर्गों के ऊपर एक रज्जु में नव ग्रैवेयक, नव अनुदिश, पाँच अनुत्तर विमान हैं। तथा इसी के आगे १२ योजन अन्तर से ४५००००० योजन प्रमाण विस्तार वाली सिद्धशिला है । सिद्धशिला के ऊपर घनोदधि, घनवात और तनुवात नामक तीन वलय हैं। इनमें तनुवात में लोक के अन्त भाग में केवलज्ञान आदि अनन्त गुणों सहित ऐसे अनन्त सिद्ध परमेष्ठी विराजमान हैं। स्वात्मोलब्धि को प्राप्त, आठ कर्मों से रहित, शान्तरूप निरंजन, नित्य, अष्टगुणों सहित, कृतकृत्य लोकाग्रवासी अनन्त सिद्ध भगवान शुद्ध जीव द्रव्य हैं। इस जैन दर्शन के अनुसार यह लोक अनादिनिधन, शाश्वत, अकृत्रिम एवं षट्द्रव्यमयी है। टोंक ३२४ दादू मार्ग, बरकत नगर, फाटक, जयपुर (राज.) ३०२०१५ फोन नं. ०१४१ - २५९२०६४ महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-2/61 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014025
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 2007
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year2007
Total Pages312
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy