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________________ अंगुल प्रमाण है और आगे बढ़ती हुई सप्तम पृथ्वी में में गंगा-सिन्धु, हैमवत में रोहित-रोहितास्या, हरि में ५०० धनुष ऊँचाई है। प्रथम नरक में जघन्य आयु दस हरित-हरिकान्ता, विदेह में सीता-सीतोदा, रम्यक में हजार एवं उत्कृष्ट एक सागर तथा आगे बढ़ते हुए सप्तम नारी-नरकान्ता, हैरण्यवत में सुवर्णकूला-रूप्यकूला नरक में नारकियों की आयु ३३ सागर प्रमाण है। इन और ऐरावत में रक्ता-रक्तोदा नदियाँ बहती हैं। इनमें नरकों में असंज्ञी पंचेन्द्रिय प्रथम भूमि में, सरठ दूसरे भरत क्षेत्र का विस्तार ६२६ ६/१९ योजन है तथा नरक में, पक्षी तीसरे नरक में, सर्प चौथे नरक तक, विदेह क्षेत्र पर्यन्त पर्वत और क्षेत्र दूने-दूने विस्तार वाले सिंह पाँचवें नरक तक, स्त्री छठे नरक तक एवं सातवें हैं। विदेह क्षेत्र के उत्तर-दक्षिण में पर्वत एवं क्षेत्र समान नरक तक कर्मभूमि में उत्पन्न मनुष्य एवं मगरमच्छ ही विस्तार वाले हैं। यहाँ बीस कोड़ा-कोड़ी (करोड़ गुणा जा सकते हैं। सातों नरक में आये जीव, बलदेव, करोड़) सागर का एक कल्पकाल होता है। उत्सर्पिणी नारायण, प्रतिनारायण और चक्रवर्ती संज्ञक श्लाका काल में जीवों की आयु, ऊँचाई, बुद्धि आदि की वृद्धि पुरुष नहीं एवं चौथे नरक से आये जीव तीर्थंकर नहीं, एवं अवसर्पिणी में इनकी न्यूनता होती जाती है। पाँचवें नरक से आये जीव चरम शरीरी, छठवे नरक से अवसर्पिणी के छह भेद हैं- सुषमा-सुषमा, सुषमा, आये जीव भावलिंगी मुनि एवं सातवें नरक से आये सषमा-दुषमा, दुषमा-सुषमा, दुषमा, दुषमा-दषमा। जीव श्रावक नहीं होते हैं। इन नरकों में पाँचवी पृथ्वी इसी प्रकार उत्सर्पिणी के छह भेद दुषमा-दुषमा आदि के निचले भाग से सप्तम पृथ्वी पर्यन्त शीतजन्य भयानक हैं। वर्तमान में दषमा हण्डावसर्पिणी काल चल रहा है। दुःख और पाँचवीं पृथ्वी के ऊपर भाग तक उष्णता का यह असंख्यात कल्पकाल बीतने के बाद आता है। इसमें अनहोनी घटनाएँ यथा तीर्थंकर तीन पद धारी, अधोलोक के ऊपर आत्मा से परमात्मा बनने तीर्थंकर के पुत्रों में लड़ाई, तीर्थंकर के प्रक्रिया आदि का मार्ग दिखाने वाली मानव पर्याय की सार्थकता को होती है। मध्यलोक में पाँच भरत, पाँच ऐरावत एवं कराने वाला असंख्यात द्वीप व समुद्रों से घिरा हुआ पाँच विदेह कुल १५ कर्मभूमियाँ हैं। भरत-ऐरावत क्षेत्र मध्यलोक है। मध्यलोक में असंख्यात द्वीपों व समुद्रों में प्रथम, द्वितीय, तृतीय काल में भोगभूमि एवं चतुर्थ के बीच जम्बू वृक्ष से चिन्हित थाली के समान गोल आदि काल में कर्मभूमि है। चतुर्थ काल में यहाँ २४ और एक लाख योजन विस्तार वाला जम्बूद्वीप है। तीर्थंकर और इनके २४ माता, २४ पिता, २४ कामदेव, इसमें भरत, हैमवत, हरि, विदेह, रम्यक, हैरण्यवत एवं १४ कुलकर, १२ चक्रवर्ती, ११ रुद्र, ९ नारायण, ९ ऐरावत सात क्षेत्र हैं। विदेह क्षेत्र में उत्तर कुरु (जामुन) बलभद्र एवं ९ नारद - ऐसे कुल १६९ महापुरुष होते का वृक्ष है, इसलिए इसका नाम जम्बूद्वीप पड़ा। हैं। यहाँ मात्र चतुर्थ काल में मुक्तिद्वार खुला है। उन क्षेत्रों का विभाग करने वाले पूर्व से पश्चिम विदेह क्षेत्र में सदा चतुर्थ काल है। यहाँ सदैव लम्बे हिमवत, महाहिमवत, निषध, नील, रुक्मिन, जीव मुक्तिगमन करते रहते हैं। बीस तीर्थंकर शाश्वत और शिखरिन नाम के ये छह कुलाचल (पर्वत) हैं। पाये जाते हैं। १५ कर्मभूमियों में १७० अयोध्या और उन पर क्रम से पद्म, महापुण्डरीक नाम के तालाब हैं। १७० सम्मेदशिखर हैं। अयोध्या में तीर्थंकरों का जन्म उनमें प्रथम तालाब पर एक योजन विस्तार वाला कमल एवं सम्मेदशिखर में निर्वाण होता है। अभी हण्डा है। तालाब के कमलों पर श्री, ही, धृति, कीर्ति, बुद्धि अवसर्पिणी काल के दोष से तीर्थंकरों का जन्म व एवं लक्ष्मी नाम की देवियाँ निवास करती हैं। उनसे निर्वाण अलग-अलग भूमियों में हुआ है। शेष क्षेत्र नदियाँ निकली हैं। इनमें पहले पद्य एवं छठे पुण्डरीक भोगभूमि कहलाते हैं। से तीन-तीन व शेष से दो-दो नदियाँ निकली हैं । भरत जम्बद्वीप के आगे दूने-दूने विस्तार वाले महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-2/60 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014025
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 2007
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year2007
Total Pages312
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size11 MB
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