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________________ को सुख - दुःख उपने वर्तमान अथवा पूर्व कर्मों से ही प्राप्त होते हैं। अगर फल भोगते हैं तो यह अपने आप में स्वतः सम्पूर्ण न्याय व्यवस्था है। सिद्धान्त रूप से फिर किसी न्यास व्यवस्था की आवश्यकता नही रह जाती लेकिन समाज एवं राष्ट्र में अपनी विशेष न्यास व्यवस्था सर्वदा अवश्यंभावी मानी गई है। सभी व्यक्ति परोपकारी, दयालु, धर्मशील नहीं हो सकते और व्यक्ति बिना कुछ पुरुषार्थ के रातों-रात अबिलम्ब प्रभूत धन लाभ करके सांसारिक सुख प्राप्त करना चाहते हैं। उसके लिए सहज उपाय के रूप में चोरी, हिंसा, कपट आदि क रास्ते अपनाने लगते हैं । कभी-कभी उन्हें तत्काल अर्थलाभ हो भी जाता है। वे यह नहीं सोच पाते या विश्वास नहीं कर पाते कि उन्हें अपने अशुभ कर्मों का फल भविष्य में भोगना पड़ेगा। वे प्रत्यक्ष तत्काल अर्थलाभ ही देख पाते हैं। विडंबना यह भी है कि कर्म पुद्गल परमाणु इतने सूक्ष्म होते हैं कि वे बंधते, फल देते, क्षय होते आँखों से दिखाई नहीं देते। जबकि अर्थ लाभ धन-सम्पत्ति की प्राप्ति दिखाई देती है और उस लाभ को कई प्राणी छोड़ नहीं पाते। ऐसे लोगों के लिए जो असामाजिक हैं, हिंसक, चोर तस्कर हैं ऐसी न्याय व्यवस्था आवश्यक है जो उन्हें उचित दंड दे सके और वे लोग समझ सकें कि अनैतिक कार्यों का फल तत्काल इस रूप में भी उन्हें मिलेगा। प्रत्येक देश की सरकार जिस पर जनता की शांति शासन व्यवस्था उन्हें करनी होती है - पूरा पुलिस, खुफिया सेना, सुरक्षा बल होते हैं। न्यायालय होते हैं जहाँ अपराधों की जाँच होती है और अपराधियों को सजा दी जाती है। यद्यपि यह सब है सुरक्षा - न्याय व्यवस्था सरकार करती है, लेकिन अनैतिक अशुभ कर्मों का फल तो अपराधी को भोगना ही होता है। वह किसी भी रूप में हो सकता है। अगर एक हिंसा का या चोरी का अपराधी जेल जाता है तो वह भी अशुभ कर्मों का फल ही माना जाएगा, चाहे वह सरकारी या न्यायाधिकारीयों के माध्यम से ही हो। अगर कदाचित् किन्हीं कारणों Jain Education International से वह जेल की सजा से बच जाता है तब भी वह समाज की नजरों से गिर जाता है, उसका मान-सम्मान समाप्त हो जाता है, सब जगह तिरस्कृत हो जाता है, उसे अपना जीवन पुलिस वालों से भागकर उनकी नजरों से छिपाकर ही गुजारना होता है। जीवन की सुख शान्ति उससे दूर रहती है। यह भी दूसरे प्रकार का अशुभ कर्म फल है 1 कई बार आकस्मिक भयंकर कष्ट कई प्राणियों के जीवन में आते हैं, कभी असाध्य बीमारी जीवन में आती है, कभी व्यापार में घाटा हो जाता है, कभी दुर्घटना में अपंगता हो जाती है, कभी मृत्यु भी हो जाती है, कभी प्रिय परिवारजनों का वियोग हो जसता है, ये सभी बिल्कुल संयोगमात्र नहीं, अतीत के अशुभ कर्मों के फल ही माने जाऐंगे, जो कभी तो तत्काल और कभी लम्बी अवधि के बाद भी फलीभूत हो सकते हैं। कठिनाई यही है कि प्रायः सर्वदा अशुभ कर्म और उनके फल में कार्य कारण भाव स्पष्ट प्रतीत नहीं होता दिखता है। यही कारण है कि संसार में अनिष्ट कर्म हिंसा, चोरी कपट आदि समाप्त नहीं होते तथा लोभ, कषाय भाव संसा प्राणी में न्यूनाधिक अवस्था में सदैव विद्यमान है और रहेगा। लेकिन कर्म एवं उनके फल का सिद्धान्त अटल है और सर्वदा रहेगा । O स्थायी पताः जय - विद्या प्लाट नं. ६, मंगल विहार विस्तार कासलीवाल पथ, गोपालपुरा बाईपास रोड़ जयपुर - ३०२०१८ ( राजस्थान ) दयालु पुरुषों के कानों की शोभा शास्त्र सुनने से है, कुण्डल पहनने से नहीं । उनके हाथों की शोभा दान करने से है, कंगन पहनने से नहीं। उनके शरीर की शोभा परोपकार करने से है, चन्दन लगाने से नहीं। महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-2/55 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014025
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 2007
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year2007
Total Pages312
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size11 MB
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