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________________ विश्वास करते हैं लेकिन फिर भी परिवार को सुचारू होता है। उस समय महावीर की बात बहुत ही क्रांतिकारी रूप से, सुख शान्ति पूर्वक चलाने के लिए कुछ नियम, थी। जन्म से नहीं, श्रेष्ठ कर्म से- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य कुछ व्रत आवश्यक हैं। जैन दर्शन में उपरोक्त १२ व्रत और शूद्र होता है। उन्होंने शूद्रों को भी वह स्थान दिया निर्धारित किए गए हैं। प्रत्येक गृहस्थ श्रावक-श्राविका जो उच्चतम वर्ग के ब्राह्मणों को था। शुभ कर्म करने से को यह नियम लेने चाहिए। गृहस्थ धर्म चूँकि सर्वश्रेष्ठ शूद्र भी ब्राह्मण और उससे भी श्रेष्ठ पद का अधिकारी हो अत्यन्त महत्त्वपूर्ण चारों पुरुषार्थ धर्म, अर्थ, काम, सकता है - कर्म की महिमा और श्रेष्ठता बताने वाले मोक्ष का साधन है। अतः इसका सुचारू, निर्द्वन्द और सर्वप्रथम युगान्तकारी महावीर ही थे। सफल रूप में गतिशील रहना भी आवश्यक है और आज के युग में भी साम्यवादी विचारधारा के इनके नियम भी आवश्यक हैं। सर्वविदित है आज के निहित सिद्धान्त यही हैं, महावीर सबसे पहले चिन्तक युग में घर परिवार में कितने द्वंद क्लेश हैं जिसकी वजह साम्यवादी विचारधारक थे। उन्होंने शोषित वर्ग को से परिवार के समस्त सदस्य भयंकर रूप से त्रस्त रहते शोषण मुक्त समाज में लाने का उपक्रम किया। वहीं हैं, परिवार टूट रहे हैं, बच्चों का जीवन कष्टमय हो रहा है, जितना अधिक क्रोध-मान एवं अन्य कषाय भाव शोषणमुक्त समाज की चिन्तन धारा महावीर के विचारों बढ़ रहे हैं, परिवार में संताप, तनाव और अंततः में जन्म ले चुकी थी। फर्क सिर्फ इतना है कि आज का विघटन होता जा रहा है। अगर परिवार के सदस्य पुण्य साम्यवाद हिंसा नरसंहार में विश्वास करता है जबकि पाप प्रकृति बंध के कारण और उनके प्रभाव को समझेंगे, महावीर विचारों में परिवर्तन करते थे। वे हिंसात्मक १२ व्रतों के अनुसार अपने आपका आचरण व्यवस्थित विचारों के बिना स्नेह, अहिंसा, विश्वप्रेम के आदर्शों रखें तो कोई कारण नहीं कि परिवार में क्लेश कष्ट और से समाज की धारा में परिवर्तन लाए। बहुत कुछ अमंगल हो। अहिंसा-मात्र जीव हिंसा ही नहीं अपितु परिवर्तन हुआ, आज विश्व में जो शान्ति समभाव है, किसी भी प्राणी के मन को मन-वचन-कर्म से कष्ट देना वह महावीर की ही देन है। संसार सुख-दुख मय ही भी हिंसा है। अतः त्याज्य है। ब्रह्मचर्य स्वपति, पत्नी है। प्रत्येक संसारी जीव के साथ सुख-दुख सर्वदा के सन्तोषव्रत है, स्त्री-पुरुष अपने पति पत्नी के अलावा लिए जुिड़े हुए हैं। कभी सावन के मेघों की तरह सुखों अन्य किसी से भी कुशील संबंध न रखें तो परिवार की की लहर उमड़ती है तो कभी दुखों के झंझावात प्रलय बहुत सी समस्याएँ स्वतः हल हो जाएंगी। इसी प्रकार की तरह आ जाते हैं। क्षणभर में भयंकर दुर्घटनाएं हो अपरिग्रह व्रत है एक सीमा में धन सम्पति रखने से जाती हैं और हँसते खेलते परिवार दु:खों के सागर में व्यक्ति की अनन्त उलझनें लोभ, मोह की प्रवृत्तियाँ कम डूब जाते हैं । युद्ध होते हैं, लाखों मनुष्य काल के गर्त हो जाएगी। असीमित धन, ऐश्वर्य की कामनाएँ मानव में समा जाते हैं उनके परिवारजन जीवन भर दुःखों की को हमेशा अशान्त ही रखेंगी। त्रासदी झेलते रह जाते हैं। जैन दर्शन में ये व्यवस्थाएँ कर्मफल के सिद्धान्तों विचारणीय है कि क्या ये सब घटनाएँ महज के अनुरूप ही की गई हैं। श्रावक के व्रतों में शुद्ध भोजन संयोग मात्र हैं या अगर ईश्वर है तो उसकी इच्छा से पान, मद्य मांस निषेध, गुरुजनों की विनय, अतिथि ही ये सब महान् नरसंहार व हिंसा होती है। वह स्वयं सेवा आदि बहुत कुछ समाविष्ट हैं जिसके आचरण से अपने मन से या हृदय की सन्तुष्टि के लिये सबको सुखों परिवार सुखी समृद्ध रह सकता है। महावीर ने कहा - के उपहार या दु:खों की आपदाएँ दे देता है। निस्संदेह 'कम्मणा बंम्मणा होई. कम्मणा होई खतिया' ऐसा नहीं होगा। अगर कार्य-कारण पर विचार किया कर्म से ही ब्राह्मण होता है और कर्म से ही क्षत्रिय जाए तो इसी निष्कर्ष पर हम पहुँचेंगे कि प्रत्येक जीव महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-2/54 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014025
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 2007
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year2007
Total Pages312
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size11 MB
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