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________________ अन्तरात्मा की अन्तर्मुखता और उसका उद्भव D पण्डित ज्ञानचन्द बिल्टीवाला अपना सुख गुण जिसका परिणमन/वर्तन निरन्तर हमारे चेतन-अवचेतन स्तरों पर हुआ जा रहा है। चेतन स्तर पर हमारी धारणाओं, अभ्यासों के अनुरूप सुख-दुःख रूप अनुभव का, संवेदन का विषय बनता है। अवचेतन स्तर पर तो उसकी सुखरूप ही गंगा निरन्तर बहे जा रही है, पर बहिर्मुखी होने से बहिरात्मा उसका वेदन नहीं कर पाता, निकट प्रकट अपनी अमृत गंगा में निमज्जन से, उसके शीतल स्पर्श से, रोग-शोकहारी उसके आस्वाद से वंचित बना रहता है। सुख की प्यास वह छोड़ नहीं सकता, उसका चाहे स्वच्छ, निर्मल रूप में पान करे अथवा थोथा, मलिन, कुरूप रूप में उसे पिये, उसे पीना ही पड़ेगा। ऐसे ही उसके ज्ञान, वीर्य, अजरता - अमरता आदि गुणों की कथा है। स्वभाव रूप या विकृत रूप, पूरे विशाल रूप में या बौने, विपरीत आदि विभाव रूप में वे उसके अनुभव / संवेदन के विषय बनेंगे ही, एक क्षण को भी वह उनसे रिक्त नहीं हो सकता। अज्ञान ज्ञान का विपरीत रूप है और छद्यस्थता उसका बौना रूप । दुर्बलता उसके आकाश प्रमाण लोहे के गोले को उठाने की सामर्थ्य से भी अनन्त गुणी सामर्थ्य रूप उसके वीर्य गुण का तुच्छ, बौना रूप है और उसके सभी दुःखों का मूल है। वीर्य बाह्य के आक्रमण रूप तथा न गुण की महानता न देह के रोग आदि रूप तिरस्कार सहन करती, उसके तेज के आगे सभी उपसर्ग, परीषह निस्तेज हो जाते हैं। वीर्य गुण महान हो और ज्ञान एवं श्रद्धा सम्यक् हुई हो अर्थात् संसार की चतुर्गति रूप कैद से मुक्त हो शाश्वत शान्ति - सुख भोगने की ललक व्यक्ति में परिणमन / बाह्य पदार्थों से न दु:ख आता है न सुख । दोनों वर्तन करने लगी हो, तो वीर्य गुण को संपूर्ण गुणों पर के वे आलम्बन ही होते हैं, उनके आलम्बन से हमारा महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-2/23 जीव/ आत्मा तीन प्रकार के होते हैं - बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा । बहिरात्मा बहिर्मुखी / पराश्रयी होता है, अन्तरात्मा अन्तर्मुखी / स्वाश्रयी होता है तथा परमात्मा निर्विकल्प होता है। संसार दशा में जीव पर अष्ट कर्मों की कालिख उसके प्रदेश-प्रदेश पर पुती हुई है। कालिख पोतने वाला अन्य कोई नहीं, वह स्वयं है और ऐसा कर वह अपने परमात्मस्वरूप को आवृत्त कर स्वयं को बौना, तुच्छ, विकारग्रस्त बना वैसा ही अनुभव किये जा रहा है। इन्द्रिय द्वारों से जैसा स्वयं को व अन्यों को देखता है, वैसा ही स्वयं को व अन्यों को मानता है, अनुभव करता है और कर्मोदय की वैतरणी में गथपथ करता रहता है। इस वैतरणी के भूख, प्यास, रोग आदि के सापों एवं क्रोध, ईर्ष्या, द्वेष आदि के मगरमच्छों के दंशों से पीड़ित हो कराहता है। तथा कभी इस वैतरणी के कोमल त्वचा वाली मछलियों के स्पर्श होते हैं और खुशनुमा कागजी फूलों की नकली सुगन्ध इसके नासिका द्वारों से ग्रहण होती है तो खुश हो लेता है और चाहता है कि यह स्पर्श और गन्ध उसे मिलते रहें। इस हेतु भारी दौड़ भाग करता है। उसे पता नहीं कि न तो कराहट/ पीड़ा बाहर से आती है और न खुशी / सुख बाहर से आता है। दोनों ही उसके सुख गुण के दो रूप परिणमन हैं। एक बिल्कुल ही विपरीत, बहुत असुहावना तथा दूसरा है तो सुहावना पर है विपरीत मान्यता युक्त और इसलिए उसकी कर्म कालिख को बढ़ाने वाला एवं उसे दुःख में ही धकेलने वाला है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014025
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 2007
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year2007
Total Pages312
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size11 MB
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