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________________ को शान्त करने के लिए ज्ञान की उपयोगिता की उपेक्षा में कर्म सामान्य अपेक्षा समानता होने पर भी बड़ा करता है, जो बिना मोक्ष लक्ष्य के देवपूजा आदि अन्तर है। षट्कर्म तथा बाह्य तपश्चरण आदि को ही साक्षात् आचार्य कुन्दकुन्द बारसाणुवेक्खा में कहते हैंमोक्षमार्ग रूप सर्वस्व समझकर अपने को धर्मात्मा वर वय तवेहि संग्गो मा दुक्खं णिरइ इयरेहिं । मानता है, चारित्र की विशुद्धि में कारण दर्शन-ज्ञान की छायातवट्ठियाणं पडिवालंताण गुरुभेदं ।। ओर जिसका लक्ष्य नहीं है, जिसके मोक्षमार्ग में आचार्य पूज्यपाद स्वामी समाधिशतक श्लोक प्रयोजनभूत सात तत्त्वों को जानने का विचार नहीं है, ८४ में कहते हैं - वह व्यवहाराभासी है। यद्यपि ऐसे मनुष्य से समाज को हानि नहीं है, वह व्यवहाराभासी है। तथा पुण्य कार्यों अव्रतानि परित्यज्य व्रतेषु परिनिष्ठितः। के सम्पादन से लाभ भी है, तथापि व्यवहारभासी मोक्ष त्यजेत्तान्यपि संप्राप्य परमं पद्मात्मनः।। का पात्र नहीं है। यहाँ बताया है कि मोक्षार्थी को पाप को छोड़कर उभयाभास - जो व्यवहार और निश्चय दोनों व्रतो (पुण्य) को आदर पूर्वक निष्ठापूर्वक ग्रहण करना को अलग-अलग मोक्षमार्ग मानता है. वह उभयाभासी चाहिए। परम पद मिलने पर व्रत भी अपने आप छट है। व्यवहार और निश्चय ये दोनों प्रमाण के अंश हैं। जाते हैं। उस स्थिति में संकल्प-विकल्प का अभाव इनका लक्ष्य एक ही पदार्थ होता है, किन्तु उभयाभासी है, अत: त्याग और ग्रहण के लिए भी अवकाश नहीं दोनों को स्वतन्त्र रूप से मानकर दो मोक्षमार्ग मानता है। फिर निश्चय व्रत तो कभी नहीं छूटते। है। ऐसा उभयाभासी सच्ची प्रतीति से अनभिज्ञ है। उपरोक्त प्रकार सम्यग्दृष्टि जीव व्यवहार पूर्वक उपरोक्त प्रकार नयों के दुरुपयोग देखने में आता निश्चय को मानता है। कुछ लोग कहते हैं कि पहले है। समीचीन दृष्टि से देखने वाला व्यक्ति व्यवहार को निश्चय होता है, बाद में व्यवहार । सो निश्चय का अर्थ साधन और निश्चय को साध्य मानता है। वह जानता उद्देश्य या इरादे को ध्यान में रखकर ऐसा कथन करते है कि मोक्षमार्ग एक है, उसके दो पहलू हैं। वे परस्पर हैं। यहाँ विचारणीय यह है कि ऐसा इरादा, प्रतीति सो विरुद्ध लगने पर भी अविरोधी हैं। समयसार के १५वें व्यवहार ही है। निश्चय की प्राप्ति होने के बाद व्यवहार कलश में कहा भी है - की क्या आवश्यकता है ? एष ज्ञानघनो नित्यमात्मा सिद्धिमीप्सुभिः। इस विषय में पं. टोडरमलजी का पुरुषार्थसिद्धि साध्यसाधकभावेन द्विधैकं समुपास्यताम् ।। उपाय में समागत यह छन्द विशेष उपयोगी है - जो सिद्धि के इच्छुक हैं उन्हें साध्य-साधन भाव कोऊ नय निश्चय सों आतमा को शुद्ध मानि, से दो रूपों को धारण करने वाले किन्तु वस्तु रूप से ___भये हैं सुछंद न पिछानै निज सुद्धता। एक आत्मा की सम्यक् उपासना करना चाहिए। मुमुक्षु कोऊ व्यवहार जप-तप-दान-शील को ही, को न निश्चय का पक्ष है, न व्यवहार का । वह बाह्य आतम को हित जानि छांड़त न मुद्धता ।। धर्मसाधन करते हुए अन्तरंग भाव विशुद्धि पर ध्यान कोऊ व्यवहार नय निश्चय के मारग को, रखता है तथा क्रम को स्वीकार कर पहले पाप को भिन्न-भिन्न पहचान करें निज उद्धता। छोड़कर पुण्य का निष्ठावान होकर आचरण करता है। जब जानें निश्चय के भेद व्यवहार सब, पश्चात् जब शुद्धोपयोग में स्थित हो जाता है तो ऐसी कारण है उपचार मानें तब बुद्धता ।। परम मुनिदशा में पुण्य भी अपने आप छूट जाता है, किन्तु पुण्य के विषय में ऐसा नहीं है। पाप और पुण्य - श्याम भवन, बजाना देवी रोड, मैनपुरी (उ.प्र.) महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-2/22 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014025
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 2007
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year2007
Total Pages312
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size11 MB
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