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________________ जिसके जीवन में, वह क्या दूसरे की शान्ति को किसी अन्तर की पुकार की प्रेरणा पाते रहने के कारण ही भी प्रकार से बाधित करने का प्रयत्न करेगा। क्या वह उसका आचरण अहिंसामयी हो जाता है, क्योंकि दूसरों कोई भी कार्य ऐसा करेगा, क्या कोई भी विचार ऐसा की आवश्यकता का भी वह उतना ही सम्मान करने मन में लायेगा, क्या कोई भी वचन ऐसा कहेगा, लग जाता है जितना कि अपनी आवश्यकता का। जिसके द्वारा कि किसी भी छोटे या बड़े प्राणी को कीड़े अपनी आवश्यकताओं की होली में दूसरों की को या मनुष्य को, गाय को या सुअर को किसी भी आवश्यकताओं को स्वाहा कर देने की बजाय दूसरों प्रकार की मानसिक या शारीरिक पीड़ा हो जाए ? की आवश्यकताओं की वेदी पर ही अपनी कदापि नहीं करेगा। जो काम स्वयं उसे अपने लिए आवश्यकताओं की बलि चढ़ा देने में ही उसे शान्ति रुचता नहीं वह दूसरे के लिए भी प्रयोग करना उसके व हर्ष की प्रतीति होती है। जिसको कार्यान्वित रूप देने लिए अकर्तव्य हो जायेगा। प्राण से मार देने का तो प्रश्न के लिये वह अपनी आवश्यकताओं को सीमित कर नहीं। झूठ, चोरी, व्यभिचार, जुआ, मनोरंजन व विलास आदि के द्वारा भी वह किसी को कष्ट नहीं पहँचा लता है। सकता। यह कार्य उसके जीवन में कृत्रिम रूप से नहीं, इन बातों के अतिरिक्त और अहिंसा है ही क्या? बल्कि स्वाभाविक रूप से ही होने लगता है। इसमें अध्यात्म. अहिंसा का अत्यन्त व्यापक रूप है इस एक किसी अन्य की प्रेरणा की उसे प्रतीक्षा नहीं होती वह में ही स्वतः प्राण-हनन, असत्य, चोरी, व्यभिचार, स्वयं उसके जीवन की अन्तर्रेरणा है। संचय आदि सर्व बातों का निषेध हो जाता है। इसीलिये इतना ही नहीं विश्व की सबसे बड़ी माँग जो अहिंसा वास्तव में अध्यात्म की पुत्री है और जिस आज साम्यवाद (Communism) के रूप में सामने समाज में अहिंसा के सब अंगों की प्रवृत्ति हो वहाँ भय आ रही है, उसके जीवन का स्वाभाविक कर्तव्य बन और संशय का काम क्या ? इस प्रकार अध्यात्म ही जाता है। राज्य नियम के कारण से नहीं, बल्कि स्वयं वास्तविक अहिंसा और सामाजिक धर्म है। । कोऽहं कस्त्वं कुतः आयातः का मे जननी को मे तातः। इति परिभावय सर्वमसारं विश्वं त्यक्त्वा स्वप्न विचारम्॥ - मैं कौन हूँ, तू कौन है, कहाँ से आया है, कौन मेरी माता है, कौन मेरा पिता है ? यह सब असार है – ऐसा चिन्तवन कर। यह विश्व स्वप्न के समान है। इसे छोड़कर आत्म-चिन्तन कर। - वैराग्य शतक महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-2/6 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014025
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 2007
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year2007
Total Pages312
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size11 MB
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