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________________ भो ! बुद्धिशाली मानव ! क्या विचारा है कि आज की यह बाहरी उन्नति आन्तरिक जीवन की उन्नति है या अवनति ! वास्तव में जीवन की उन्नति इस विज्ञान में नहीं बल्कि अध्यात्म-विज्ञान में निहित है। बाहर के वैज्ञानिक आकर्षणों से अन्धा हुआ मानव आज अपने आन्तरिक विज्ञान से आँखें मोड़ बैठा है। यही कारण है जीवन की चिन्ताओं का तथा संशय व भय का । अध्यात्म दो-चार योगियों का ही कर्त्तव्य हो और शेष मानव समाज का नहीं ऐसा नहीं है। अध्यात्म मानव जीवन का सार है। चाहे वह गृहस्थ में रहता हुआ मानव जीवन का अंश बना हुआ हो और चाहे योगी के रूप में स्वतन्त्र जीवन बिता रहा हो । योगी की बात छोड़िये। देखना यह है कि सामाजिक व्यवस्था में अध्यात्म किस रूप में सहायक हो सकता है तथा अहिंसा-सम्मेलन में बताई गयी अनेकों बातों की पूर्ति इस अकेले अध्यात्म के द्वारा कैसे हो जाती है ? अध्यात्म वास्तव में वह महान तत्त्व है जो जीवन की हर दिशा में उपयोगी है, क्योंकि वह स्वयं जीवन है । अध्यात्म अन्तशुद्धि (Moral) का निर्माता है और इसलिये मानव को दानवता से हटाकर मानवता के दर्शन कराता है। यदि ऐसा है तो विचारिये कि क्या अहिंसा तथा सामाजिक व राजकीय व्यवस्था हमसे अछूती रह सकेगी। जहाँ अध्यात्म है वहाँ ही सच्ची व स्वाभाविक अहिंसा और सामाजिकता है। जहाँ अध्यात्म नहीं, वहाँ वह भी नहीं। क्योंकि अध्यात्म के अभाव में अपनायी जानेवाली अहिंसा व सामाजिकता कृत्रिम है स्वाभाविक नहीं, और कृत्रिमता कभी स्थायी नहीं हुआ करती। यही कारण है कि महात्मा गांधी के नाम की दुहाई देनेवाली आज की भारत समाज मांस प्रचार के प्रति और पंचशील को स्वीकार कर लेने वाले अनेकों देश युद्ध व संहार के प्रति बढ़े चले जा रहे हैं। समस्या का कोई सच्चा हल हो सकता है तो वह अध्यात्म ही है । अध्यात्म हमको जिस एक छोटे से सिद्धान्त का Jain Education International दर्शन कराता है वह केवल इतना है कि यह अन्तर से उठने वाली जो “मैं” है वह ही वास्तव में जीवन है। वह चैतन्यमूर्ति है व अमूर्तिक है, वह इन्द्रिय से अगोचर है, वह ज्ञानात्मक है। दुःख व सुख, चिन्ता व शान्ति सब वहाँ ही उत्पन्न होते हैं, तथा वह ही उनका उपभोग करने में समर्थ है। यह बाहर में दृष्ट शरीर मैं रूप नहीं है । यह भौतिक है अचेतन है । दुःख या सुख, चिन्ता या शान्ति इसकी उपज नहीं है और न ही वह इसका उपभोग कर सकता है। यह पहिला मैं तत्त्व नित्य व अविनाशी है और यह शरीर बाह्य व अनित्य, अर्थात् चिता में रखकर जला दिया जाने वाला। उस “मैं” तत्त्व को ही आत्मा कहते हैं, जो अन्तर हृदय में ज्ञान द्वारा प्रवेश पाकर ही देखा जाना व महसूस किया जाना सम्भव है। न नेत्रों के द्वारा देखा जा सकता है और न ही शरीर द्वारा महसूस किया जा सकता है। बस इतना सा ही अध्यात्म का मूल विषय है। जो यद्यपि छोटा दिखता है पर अपनी गहनता के कारण अनन्त विस्तार युक्त है । यह हमें हमारे उस वर्तमान प्रवाह की भूल को दर्शाता है जो केवल शरीर को जीवन मानकर बहता हुआ जीवन से अत्यन्त दूर हुआ जा रहा है। यदि मैं यह समझ जाऊँ कि मैं तो अन्तर्विलास रूप चैतन्य तत्त्व हूँ। मेरी शान्ति व अशान्ति का मूल वह ही है। इस शरीर से वास्तव में मेरा कोई ता नहीं, तो मेरी प्रवृत्ति में अवश्य अन्तर पड़ जाये । वही काम मेरे लिये कर्तव्य हो जाये, जिसके द्वारा कि अन्तर्शान्ति का निर्माण हो या उसको कुछ सहायता मिले। हर वह कार्य जो जीवन में कल्पनायें, विकल्प व चिन्तायें उत्पन्न करे, मेरे लिये अकर्तव्य हो जाये । कर्तव्य से अकर्तव्य की कसौटी लौकिक न्याय नहीं बल्कि अन्तरंग शान्ति हो जाये, वर्तमान का स्वार्थ टल जाये । यदि कोई कार्य भविष्य में जाकर भी अशान्ति का कारण बन जाये तो वह भी मेरे लिये अकर्तव्य हो जाये । शान्ति का इतना बहुमान प्रकट हो गया है, महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-2/5 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014025
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 2007
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year2007
Total Pages312
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size11 MB
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