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________________ स्वतंत्रता के प्रति उपग्रही होता है, सहयोगी होता है। धन समाज में विषमता पैदा करता है। चोरी का यह जनतंत्र की सफलता व राष्ट्र की समृद्धि तथा समाज का धन अनाचार है और यह उछाल भी इसी तरह लेता गौरव परस्पर सहयोगी होकर रहने तथा पुरुषार्थमय है। श्रावक किसी भी स्थिति में अन्य की भावना को नागरिकों में निहित होता है। सब एक के लिए और ठेस पहुँचाता नहीं है। अपने वैभव का प्रदर्शन वह नहीं एक सब के लिए होने लगते हैं तो जनतंत्र अपने से करता । उसका वैभव धन नहीं, चरित्र होता है और वह सार्थक हआ जाता है। अन्य की कीमत पर सुविधा का अपने से व्यक्त होता है। श्रावक का जीवन-व्यवहार, भोग अतिक्रमण हैं जो संघर्ष के लिए होता है। वर्ग- विधि-विधान के अनुरूप होता है। वह निषेधात्मक वर्ण, जाति, भाषा व सीमाओं का संघर्ष और विरोध नहीं होता। व्यसनों से बचना, रात्रि भोजन नहीं करना, अतिक्रमण के कारण ही होता है। जनतंत्र की पहली मास-मधु, कंदमूल आदि का सेवन नहीं करना भी शर्त है कि हर नागरिक अन्य के प्रति संवेदनशील हो, उसका विधानी आचरण है। यह सब उसके चरित्र के स्वतंत्रता में हस्तक्षेप नहीं करे। अपनी सीमा और साथ है। वह अपव्ययी नहीं होता। अपनी दैनिक-चर्या में भी जल, वायु, अग्नि आदि का अपव्यय नहीं मर्यादा में रहते हुए अपने लिए उपयोगी व उपभोगी रहे। करता। एक बूंद पानी भी अनावश्यक बिखरती है तो कार फुटपाथ पर चलते नागरिक को धुआँ से भरती है, उसके लिए प्रायश्चित का कारण बनती है। वह उपभोग प्रदूषण का निर्माण करती है, चोट पहुँचाती है तो वह करता है सावचेत होते हुए। श्रावक जानता है कि हर अतिक्रमण है। छड़ी रखने का अधिकार है, लेकिन वस्त व पदार्थ उपयोग के लिए है। इनका उपभोग घुमाते हुए किसी को आहत करने का नहीं है। जनतंत्र । जनता सहयोग के साथ है। वस्तु या पदार्थ की सीमा है और की पहली शर्त जन को सम्मान और स्वतंत्रता देना है। इन पर अधिकार और दुरुपयोग किए रहना अन्य को धन का प्रदर्शन अन्य को दयनीय बनाता है तो वह जन वंचित करना है। अनेकान्तिक धारा श्रावक की चिन्तन के प्रति द्रोह है। चोरी और जारी का चलना और इससे धारा होती है और वह कभी आग्रही होकर नहीं रहता, समाज को विद्रूप बना कर स्वेच्छाचारी होते जाना आग्रह राग है, मोह है जो बन्धन है। समाज को पतन की ओर ले जाना है। किसी भी व्यक्ति, सर्वोदय-तीर्थ में श्रावक सबके उदय व मंगल परिवार या समाज को व्यवहार और आचार में के लिए होता है। वीरम जयत शासनम. आत्मानशासन स्वेच्छाचारी होने को अधिकार नहीं दिया जा सकता। के लिए है, जहाँ स्वाश्रयी होकर पुरुषार्थी होने की प्रेरणा साम्राज्यी व्यवस्था में प्रदर्शन और शान-शक्ति के लिए है। सम्यक् श्रवण करने व तदुनसार आचरण करने अवसर रहे हों, लेकिन जनतंत्र में इनको चलने देना वाला श्रावक है। कविवर दौलतरामजी के शब्दों में - अन्य सबको पराभूत करना है। 'गेही पे गृह में न रचे, ज्यों जल तैं भिन्न कमल है।' सर्वोदय तीर्थ में श्रावक समता के लिए होता श्रावक गृहस्थाश्रम में होकर भी जल में कमल की तरह है। वह समाज के प्रति अपने कर्तव्य बोध के साथ सहजभावी हुआ रहता है। इसलिए बनारसीदासजी ने दायित्व के लिए होता है। अपने अधिकारों के लिए श्रावक को इक्कीस गुणों से विभूषित किया है और उन जागरुक होता है और अन्य के अधिकारों के प्रति सजग गुणों की वंदना की है। श्रावक होना, अपने को सार्थक रहता है। वह अपने पुरुषार्थ से अर्जित धन और संपदा करना है, सहज होकर आग्रह मुक्त जीवन जीना है। के लिए आकृष्ट नहीं होता और बादल की तरह दिये रहने में होता है। करों की चोरी को अपराध मानता है। ___ - २, न्यू कालोनी, जयपुर करों की चोरी वृत्ति होकर व्यवहार हो जाती है। तो ऐसा महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-1/39 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014025
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 2007
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year2007
Total Pages312
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size11 MB
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