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________________ भगवान महावीर की साधना डॉ. दयानन्द भार्गव विपुल वे लम्बे समय तक त्राटक करते। स्त्रियाँ उन्हें लुभाने का प्रयत्न करतीं, किन्तु वे विचलित नहीं होते थे। वे न सम्मान करने वालों पर कोई अनुग्रह करते थे, न पीड़ा देने वालों का निग्रह। वे इन्द्रियों तथा मन, वचन एवं काया की प्रवृत्ति पर संयम रखते थे । वे न हिंसा करते थे, न किसी से करवाते थे । न वे स्वयं पात्र रखते थे, न किसी दूसरे के पात्र उपयोग करते थे, वे करपात्री थे। भगवान महावीर का एक ऐसा भी जीवन-वृत्त उपलब्ध है जो किसी प्रकार के अतिमानवीय (सुपर ह्युमन) तथा अतिप्राकृतिक (सुपर नेचुरल) अंश से सर्वथा मुक्त है, किन्तु जिसमें उनका महामानव रूप पूरी तरह उभरकर आता है। आज के बुद्धिवादी युग में ऐसे जीवन-वृत्त का महत्व और भी अधिक है - यह कहने की आवश्यकता नहीं। यह जीवन-वृत्त आँखों देखा हाल जैसा विश्वसनीय है । गवेषणात्मक दृष्टि से यह जीवन-वृत्त आचारांग में दिया गया है। अत: इसे भगवान महावीर का प्राचीनतम उल्लेख भी माना जा सकता है। महावीर जयन्ती के अवसर पर इसी जीवनवृत्त का सार संक्षेप नीचे दिया जा रहा है। आचारांग का अधिकांश भाग गद्यात्मक है, किन्तु यह जीवनवृत्त पद्यात्मक है। प्राचीनकाल में मनुष्य के लिए गद्य की अपेक्षा पद्य रचना अधिक सहज थी । अतः इस जीवन-वृत्त का पद्यात्मक होना इसकी अर्वाचीनता की अपेक्षा प्राचीनता ही सिद्ध करता है। Jain Education International - इस जीवन-वृत्त के कहने वाले हैं भगवान महावीर के साक्षात् शिष्य सुधर्मा स्वामी और सुनने वाले हैं जम्बू स्वामी। जीवन-वृत्त यहाँ से प्रारम्भ होता है कि जब भगवान महावीर ने यथार्थ को जानकर संन्यास ग्रहण किया, तब हेमन्त ऋतु । उस हेमन्त ऋतु में भी उन्होंने शरीर को वस्त्र से आच्छादित नहीं करने का निर्णय किया। उनके शरीर पर प्रारम्भ में सुगन्धित द्रव्यों का लेप था, जिससे आकृष्ट होकर भौरें उनके शरीर पर आते और डंक मारते, किन्तु वे उस कष्ट को अविचलित भाव से सहन करते । वे मात्रानुसार ही खाते-पीते थे, रसीला भोजन नहीं करते थे । वे इस प्रकार चलते थे कि किसी को कष्ट न हो। वे निर्वस्त्र तो थे ही, शिशिर में भी हाथों को शरीर से चिपका कर सर्दी से बचने का प्रयत्न नहीं करते। लोग उनका परिचय पूछते तो वे चुप रहते। इस पर लोग उन पर क्रुद्ध होते, पर वे शान्त रहते । कोई उनके कहीं रहने पर आपत्ति करता तो वे उस स्थान को छोड़ देते। वे कम खाते थे। रोग होने पर औषधि नहीं लेते थे । तैल-मर्दन तो दूर वे दन्त प्रक्षालन से भी बचते । शिशिर में वे धूप में रहते । वे अत्यन्त रूखासूखा भोजन करते । वे लम्बे समय तक निराहार तथा निर्जल रहते थे। उनका मन समाधि में लगा था। वे पाप न करते, न करवाते, न अनमोदन करते। उन्होंने क्रोध, मान, माया तथा लोभ को शान्त कर दिया। वे शब्द और रूप के प्रति पूर्णत: अनासक्त रहे । उन्होंने कभी प्रमाद नहीं किया। उनके मन, वचन तथा काय की प्रवृत्ति पूर्णतः संयत थी। वे पूरे साधना काल में इसी प्रकार अप्रमत्त रहे। तो ऐसा है भगवान महावीर की चर्या का महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-1/35 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014025
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 2007
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year2007
Total Pages312
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size11 MB
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