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________________ गयी है, पर बाहर से अभी वस्त्र ही छूटे हैं, देह छूटने उन्हें अपना शत्रु मानो तो मानो, अपना मित्र मानो में अभी कुछ समय लग सकता है, पर वह भी छूटनी तो मानो; अब वे किसी के कुछ भी न रह गये थे। है; क्योंकि उसके प्रति भी जो राग था, वह टूट चुका किसी का कुछ रहने में कुछ लगाव होता है, उन्हें है। देह रह गयी है तो रह गयी है, जब छूटेगी तब छूट जगत् से कोई लगाव ही न रहा था। जायेगी; पर परवाह उसकी भी छूट गयी है। एक अघट घटना महावीर के जीवन में अवश्य __मुनिराज वर्द्धमान नगर छोड़ वन में चले गये। घटी थी। आज से २५३३ वर्ष पहले दीपावली के दिन पर वे वन में भी गए कहाँ हैं ? वे तो अपने में चले जब वे घट (देह) से अलग हो गये थे, घट-पट के वासी गये हैं, उनका वन में भी अपनत्व कहाँ है ? उन्हें होकर भी घटवासी न रहे थे, गृहवासी और वनवासी वनवासी कहना भी उपचार है, वे वन में भी कहाँ तो बहुत दूर की बात है, अन्तिम घट (देह) को भी रहे ? वे तो आत्मवासी हैं। न उन्हें नगर से लगाव है, त्याग मुक्त हो गये थे। न वन से; वे तो दोनों से अलग हो गये हैं, उनका तो इससे अभूतपूर्व घटना किसी के जीवन में कोई पर से अलगाव ही अलगाव है। अन्य नहीं हो सकती, पर यह जगत इसको घटना माने रागी वन में जायेगा तो कुटिया बनायेगा, वहाँ तब न ? भी घर बसायेगा, ग्राम और नगर बसायेगा; भले ही इसप्रकार सर्वथा अलिप्त, सम्पूर्णत: आत्मनिष्ठ उसका नाम कुछ भी हो, है तो घर ही। रागी वन में महावीर के जीवन को समझने के लिए उनके अन्तर में भी मंदिर के नाम पर महल बसायेगा, महलों में भी झांकना होगा कि उनके अन्तर में क्या कुछ घटा ? उन्हें उपवन बसायेगा। वह वन में रहकर भी महलों को बाहरी घटनाओं से नापना, बाहरी घटनाओं में बांधना छोड़ेगा नहीं, महल में रहकर भी वन को छोड़ेगा नहीं। संभव नहीं है। नहाना-धोना सब कुछ छूट गया था। वे स्नान यदि हमने उनके ऊपर अघट-घटनाओं को और दंत-धोवन के विकल्प से भी परे थे। शत्रु और थोपने की कोशिश की तो वास्तविक महावीर तिरोहित मित्र में समभाव रखनेवाले मुनिराज वर्द्धमान गिरि हो जावेंगे, वे हमारी पकड़ से बाहर हो जावेंगे और जो कन्दराओं में वास करते थे। महावीर हमारे हाथ लगेंगे, वे वास्तविक महावीर न वस्तुत: न उनका कोई शत्र ही रहा था और होंगे, तेरी-मेरी कल्पना के महावीर होंगे। न कोई मित्र । मित्र और शत्रु राग-द्वेष की उपज हैं। यदि हमें वास्तविक महावीर चाहिए तो उन्हें जब उनके राग-द्वेष ही समाप्तप्राय: थे, तब शत्रु-मित्रों कल्पनाओं के घेरों में न घेरिये, उन्हें समझने का यत्न के रहने का कोई प्रश्न ही नहीं रह गया था। मित्र कीजिए, अपनी विकृत कल्पनाओं को उन पर थोपने रागियों के होते हैं और शत्रु द्वेषियों के - वीतरागियों की अनधिकार चेष्टा मत कीजिए। का कौन मित्र और कौन शत्रु । कोई उनसे शत्रुता करो तो करो, मित्रता करो तो करो; उन पर उनकी कोई - श्री टोडरमल स्मारक भवन, प्रतिक्रिया नहीं होती है। शत्रु-मित्र के प्रति समभाव ए-४, बापूनगर, जयपुर-३०२०१५ का अर्थ ही शत्रु-मित्र का अभाव है। उनके लिए उनका न कोई शत्रु था और न कोई मित्र। अन्य लोग महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-1/34 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014025
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 2007
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year2007
Total Pages312
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size11 MB
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