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________________ अपने अस्तित्व की यथार्थता का पता नहीं है। ऐसे : से पलायन नहीं करता और न यह अभिव्यक्त होने व्यक्ति को जैन धर्म बेहोश कहता है । वह मोह देता है कि वह किसी भी प्रकार से असामान्य या की महावारूणी पिये हुए है । वह जानकर भी : विशिष्ट है । भौतिक सामग्री वा वैभव को सच्चा नहीं जानता, देखकर भी नहीं देखता । जब गुरु: साधक प्रात्मभाव से देखता है और उनका उप. प्रसाद से बहिरात्मा को अपने अस्तित्व का, अपने योग प्राध्य त्मिक दृष्टि से करता है । यहां फिर जीवन के मूल्य का ज्ञान होता है और संसार की वही बात दोहराने की जो करता है कि कलाकार नश्वरता का दर्शन खुली आँखो से करता है, तो के लिए पत्थर का छोटा सा कर भी उसकी विशाल वह इन सबसे विरक्त होकर अंतर्मुख हो जाता एवं व्यापक भगवत् भावना का अश है। अपने है। तब उसे सारा बाह्य वैभव, माया और छलावा कर्म को व्यक्ति जब सर्वात्मभाव से सम्पन्न करता लगने लगता है। वह तब निर्ग्रन्थ हो जाता है। है और उसमें उपका स्वार्थ तिरोहित हो जाता है, समस्त ग्रन्थियों को खोलकर उन्मुक्त हो जाता है। तब वह केवल कर्म नहीं रह जाता-वह अकर्म ही सारे बाह्य सौन्दर्य में उसे विरूपत। दिखाई देने हो जाता है। योगीन्दु देव ने लिखा हैलगती है। एक जाज्वल्यमान प्रात्मा का स्मरण वह करता है। भेद विज्ञान उसमें जाग जाता है, जहि भावइ तहि जहि जिय जंभावइ करि तंजि ! और वह अपना ही दीपक बन जाता है। केम्वइ मोक्ष अत्थि पर चिनहं सुद्धि रणंज जि ।। . परमात्मप्रकाश, 2/70 जैन-साधना की कुछ पद्धति तो है, पर पद्धति का उपयोग साधन: के तौर पर ही किया जाता -हे जीव जहाँ खुशी हो जानो और जो मर्जी है। अन्ततः तो सब पद्धतियों से परे होने पर ही हो कगे, किंतु जब तक चित्त शुद्ध नहीं हो तब साध्य की उपलब्धि होती है। पद्धतियां तो फिस. तक मोक्ष नहीं मिलेगा। लन से, भटकाव से बचने के लिए सकेत मात्र है। जैन श्रमण परंपरा की यह अनोखी विशेषता पद्धतियां तो अनुभवियों के प्रयोग हैं जिनसे सबक रही है कि हस्यवर्ग से निरंतर संपर्क रखते हुए लेकर साधक को अपना मार्ग तय करना है। भी, उनसे प्रतिदिन आहारादि प्राप्त करते हुए भी ___ प्रश्न यह है कि क्या भौतिकता को अध्यात्म श्रमण आकाक्षायों से परे रहते हैं और भ्रामरीमें परिणत किया जा सकता है? भौतिकता की वृत्ति से विचरण करते हैं। फूल मे अपनी प्रावनिन्दा करना और उसे छोड़कर जंगल का रास्ता श्यकता भर का पराग ग्रहण करने वाले भ्रमर का अपना लेना कठिन नहीं है, किन्तु इसमें साधना का का जीवन जैन श्रमरणों की चर्चा के लिए उत्तम दृष्टासूत्र हाथ से छट जाता है । पचेन्द्रिय के विषयों पर न्त रूप में प्रस्तुत किया जाता है। विजय प्राप्त करने के लिए शास्त्रों में अनेक उपायों ' जैन धर्म या दर्शन क" अपना कर्म सिद्धान्त से का उल्लेख मिलता है और यह भी कि घर छोड़ है। उसका भाग्य या कर्तव्य से दूर का भी संबध कर अनगार बन जाना चाहिए। अनेक साधक नहीं है । यह कर्म सिद्धान्त दार्शनिक निप्पत्ति है मुनिवेश धारण करके विचरण भी करते हैं । प्रार- जिसके अनुसार व्यरित सम्धक श्रद्धा, सम्यक्ज्ञान मिभक अभ्यास की दृष्टि से इसका महत्व अवश्य एवं सम्यक चरित्र के समन्वित मार्ग पर, संतुलनहै, किन्तु सम्यक्साधना में यह सब बात गौण हो पूर्वक साधना करता हा अपने साध्य को प्राप्त जाती हैं । सम्यक् साधना में व्यक्ति कहीं किसी करता है । वह त्यागने के लिए कुछ नहीं त्यागता, 1-46 महावीर जयन्ती स्मारिका 78 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014024
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1978
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1978
Total Pages300
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size7 MB
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