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________________ जब अपने जीवन को तोलता है, तब उसका जाता है, तब प्राचार में जड़ता आ जाती है । इस प्राचार नैतिक नियमों के पालन में व्यक्ति को जड़ता के निवारण के लिए भी प्रयास करना अपने परिवार, पास-पड़ोस, गांव तथा राज्य-राष्ट्र पड़ता है। भारतीय धर्मों में वैदिक, जैन और के लिए त्याग भी करना पड़ता है, क्योंकि उसके बौद्ध अपनी विशेषता एवं महत्ता रखते हैं । वैदिक जीवन का विकास भी समाज के अनेकमुखी त्याग धर्म की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि स्वतंत्र पर निर्भर करता है । अहिंसा आदि पांचव्रत, मैत्री चिंतकों के कारण उसमें युगानुकूल प्रवृत्तियों का प्रमोद प्रादि भावनाए परस्पर उपग्रह प्रादि नैतिक समावेश होता गया और व्यक्ति को यह स्वतंत्रता साधना के साधन हैं। रही कि चाहे जिस मार्ग को अपना कर कल्यारण साधना करे । जैन धर्म की साधना पद्धति मूल में तीसरी भूमिका प्राध्यात्मिक है । प्राध्यात्मिक एक प्रकार की रही, उसके साधनों में यदकदा कुछ साधना में व्यक्ति शरीर एवं सामाजिक म दिाप्रों हेरफेर होता रहा । जैन साधना का मौलिक से ऊपर उठ कर ऐसी भूमिका में प्रवेश करता है प्राधार दार्शनिक विचार रहा बो वैदिक धर्म से जहां आसक्ति और प्राकुलता नाम की कोई चीज सर्वथा भिन्न है। नहीं रह जाती । धीरे-धीरे वह शरीर-शुद्धि करते हुए पात्म शुद्धि की स्थिति को उपलब्ध करना वादक धर्म ने जहाँ कम, भक्ति, और ज्ञान पर अपना लक्ष्य बना लेता है। मानसिक एवं शारी- साधना का भवन निर्मित किया वहां जैन धर्म ने रिक विकारों को दूर करने के लिए वह मासन दर्शन, ज्ञान और चारित्र की एकता पर बल दिया ध्यान, प्राणायाम आदि के प्रयोग करता है और जैन साधना का लक्ष्य हा परमात्म-पद की प्राप्ति अपने अस्तित्व का चिंतन करता है। धामिक परि. जब कि वैदिक साधना का लक्ष्य रहा है परमात्मा भाषा में ऐसे व्यक्ति साधु-संन्यासी या श्रमण कहे में लीनता । इसी लिए हम देखते है कि जैन मनीजाते हैं। इनकी प्राचार संहिता बिलकुल अलग षियों ने वैदिक धर्म के क्रियाकांडो में प्रारही जड़ता प्रकार की होती है । सम्पूर्ण, जीब सृष्टि एवं का पूरी शक्ति के साथ विरोध किया । जटा प्रकृति के साथ प्रात्म-भ ब स्थापित करने की दिशा बढ़ाना, नी में स्नान करना, श्राद्ध करना, तर्पण में उनकी हर क्रिया इतनी सावधानीपूर्वक होती है करना, सूर्यादि ग्रहण के साथ व्रत-दान करनी कि कभी-कभी प्रबोध मन को ये सब बातें हास्या- यज्ञोपवीत धारण करना, आदि सैकड़ों क्रियाओं स्पद भी लगती हैं। अपने शरीर के प्रति अनासक्त को साधना का अग मानने से जैनो ने इनकार या उदासीन होकर समस्त जीवों के शरीरों में करके साधना के क्षेत्र में महान् क्रान्ति की था प्रपने को और अपने में सृष्टि-विग्रह को समाहित इसमें संदेह नहीं। करने की यह साधना इतनी सूक्ष्म एवं कठिन होती है कि निरन्तर अभ्यास के बावजूद फिसलने का जैन साधना की गति वीतरागता की और है । भौतिक सुख सुविधाओं अथवा बाह्य समृद्धि का डर रहता है। जीवन में कोई महत्व यहां स्वीकार नहीं किया प्राध्यात्मिक साधना को प्रायः सभी धर्मों ने गया जो यह मानता है कि मैं सुखी-दुखी हूं, राजा महत्व दिया है । सबके अपने-अपने मार्ग हैं, विधियां रंक हूँ, सुन्दर-असुन्दर हूं, सम्पन्न-विपन्न हूँ, वह हैं और प्राचारगत विशेषताएं हैं । जब साध्य जैन धर्म की दृष्टि में बहिरात्मा है । बहिरात्मा वह प्रोझल हो जाता है और साधन ही प्रमुख बन जो मोहासक्त है, मिथ्या में जीता है और जिसे महाबीर जयन्ती स्मारिका 78 1-45 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014024
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1978
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1978
Total Pages300
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size7 MB
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