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________________ क्लेश नहीं होता । यदि हम ईश्वर की कल्पना प्रशान्त, परिपूर्ण राग द्व ेष रहित, मोह विहीन वीतरागी प्रानन्द परिपूर्ण रूप में करते हैंतो भी उसे फल में हस्तक्षेप करने वाला नहीं माना जा सकता । उस स्थिति में वह राग द्वेष तथा मोह आदि दुर्बलता से पराभूत हो जावेगा । यदि जीव स्वेच्छानुसार एवं सामर्थ्यानुकूल कर्म करने में स्वतन्त्र है, उसमें परमात्मा के सहयोग की कोई आवश्यकता नहीं है तथा वह अपने ही कर्मों का परिणाम भोगता है, फल प्रदाता भी दूसरा कोई नहीं है तो क्या उसकी उत्पत्ति एवं विनाश के हेतु रूप में किसी परम शक्ति की कल्पना करना आवश्यक है? इसी प्रकार क्या सृष्टि विधान के लिए भी किसी परम शक्ति की कल्पना आवश्यक है ? यदि नहीं तो फिर परमात्मा या ईश्वर की परिकल्पना की क्या सार्थकता है । कर्तावादी सम्प्रदाय पदार्थ का तथा उसके परिणमन का कर्ता (उत्पत्ति-कर्ता, पालनकर्ता तथा विनाशकर्ता ) ईश्वर को मानते हैं । इस विचारधारा के दार्शनिकों ने ईश्वर की परिकल्पना सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की परम शक्ति के रूप में की है जो विश्व का कर्ता तथा नियामक है तथा समस्त प्राणियों के भाग्य का विधाता है । इसके विपरीत चार्वाक, निरीश्वर सांख्य, मीमांसक, बौद्ध एवं जैन इत्यादि दार्शनिक परमात्मा के अस्तित्व में विश्वास नहीं करते हैं । वैशेषिक दर्शन भी मूलतः ईश्वरवादी नहीं है । भारतीय दर्शनों में नास्तिक दर्शन तो ईश्वर की सत्ता में विश्वास नहीं करते; शेष षड्दर्शनों में महावीर जयन्ती स्मारिका 78 Jain Education International प्राचीनतम दर्शन सांख्य है । इसका परवर्ती दार्शनिकों पर प्रभाव पड़ा है । इस दृष्टि से सांख्य दर्शन के ईश्वरवाद की मीमांसा आवश्यक है । सांख्य दर्शन में दो प्रमेय माने गये हैं - ( 1 ) पुरुष, (2) प्रकृति 1 पुरुष चेतन है, साक्षी है, केवल है, मध्यस्थ है, द्रष्टा है और अकर्ता है। प्रकृति जड़ है, क्रियाशील है और महत् से लेकर धरणि पर्यन्त सम्पूर्ण तत्वों की जन्मदात्री है, त्रिगुणात्मिका है, सृष्टि की उत्पादिका है, श्रज एवं अनादि है तथा शाश्वत एवं अविनाशी है | 2 ईश्वर कृष्ण की सांख्यकारिकाप्रों में ईश्वर, परमात्मा, भगवान या परमेश्वर की कोई कल्पना नहीं की गयी है | कपिल द्वारा प्रणीत सांख्य सूत्रों में, ईश्वरासिद्ध: ( ईश्वर की प्रसिद्धि होने से ) सूत्र उपस्थापित करके ईश्वर के विषय में अनेक तर्कों को प्रस्तुत किया गया है। यहां प्रमुख तर्कों की मीमांसा की जावेगी : (1) कुसुम वच्चमरिणः - सूत्र के आधार पर स्थापना की गयी है कि जिस प्रकार शुद्ध स्फटिकमरिण में लाल फूल का प्रति विम्ब पड़ता है उसी प्रकार प्रसंग, निर्विकार, अकर्ता के सम्पर्क में प्रकृति के साथ-साथ पुरुष रहने से उसमें उस प्रकर्ता पुरुष का प्रतिबिम्ब पड़ता है । इससे जीवात्माओं के प्रदृष्ट कर्म संस्कार कलोन्मुखी हो जाते हैं तथा सृष्टि प्रवृत्त होती है । यह स्थापना ठीक नहीं है। इसके अनुसार चेतन जीवात्मानों को पहले प्रकृति में लीन रहने की कल्पना करनी पड़ेगी तथा उन्हें प्रकृति से उत्पन्न मानने पर जड़ को चेतन का कारण मानना For Private & Personal Use Only 1-17 www.jainelibrary.org
SR No.014024
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1978
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1978
Total Pages300
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size7 MB
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