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________________ धारा अभिव्यक्त करता है कि जीवों का भाग्य परपीडाशील है कि वह ऐसे कर्म कराता है ईश्वर के ही अधीन है, वही विश्व नियंता है, जिससे अधिकांश जीवों को दुख प्राप्त होता है । वही उन्हें उत्पन्न करता है, संरक्षण देता है तथा निश्चय ही कोई भी व्यक्ति ईश्वर की परपीडा उनके भाग्य का निर्धारण करता है। शील स्वरूप की कल्पना नहीं करना चाहेगा। ___ इस स्थिति में जीव में कर्मों को करने की इन विषयों पर गहराई से विचार करने पर स्वातन्त्र्य शक्ति माननी पड़ती है । अनेक प्रश्न उत्पन्न होते हैं । यह जिज्ञासा शेष रह जाती है कि कर्मों को क्या ईश्वर ही मनुष्य के भाग्य का निर्माता सम्पादित करने की शक्ति या पुरुषार्थ की स्वीकृति है ? क्या वही उसका भाग्य विधाता है ? यदि कोई मानने के अनन्तर क्या परमात्मा कर्मों के फल का मनुष्य सत्कर्म न करे तो भी क्या वह उसको अनु- विभाजन एक न्यायाधीश के रूप में करता है ग्रह से अच्छा फल दे सकता है ? मनुष्य के जितने अथवा कर्मानुसार फल प्राप्ति होती है। दूसरे कर्म हैं वे सबके सब क्या पूर्व निर्धारित हैं ? उसके शब्दों में फलोद भोग में परमात्मा का अवलम्बन इस जीवन के कर्मों का उसकी भावी नियति से अगीकार करना आवश्यक है अथवा नहीं ? क्या किसी प्रकार कोई सम्बन्ध नहीं है ? ताकिक दृष्टि से यदि विचार करें तो ईश्वर मनुष्य ईश्वराधीन होकर ही क्या सब कर्म को नियामक एवं पाप पुण्य का फल देने वाला करता है या उसकी अपनी स्वतन्त्र कतृत्व शक्ति मानने की कोई आवश्यकता नहीं है। कारण कार्य भी है जिसके कारण वह अपनी निजी चेतना शक्ति के सिद्धान्त के आधार पर विश्व की समस्त घटके कारण कर्मों के प्रवाह को बदल सकता नामों की ताकिक व्याख्या करना सम्भव है । यदि ऐसा न होता तो प्रकृति के नियमों की कोई भी वैज्ञानिक शोध सम्भव न हो पाती। यदि ईश्वर ही भाग्य निर्माता होता तब तो वह मनुष्य को बिना कर्म के ही स्वेच्छा से फल यह तर्क दिया जा सकता है कि ईश्वर ने ही प्रदान कर देता। यह मानने पर मनुष्य के पुरु- प्रकृति के नियमों की अवधारणा की है। इन्हीं षार्थ, धर्म, आचरण, त्याग एवं तपस्या मूलक के कारण जीव सांसारिक कार्य प्रपंच करता जीवन . व्यवहार की सार्थकता ही समाप्त हो है। जावेगी। __ इसका उत्तर यह है कि यदि ईश्वर के द्वारा यदि जीव ईश्वराधीन ही होकर कर्म करता ही प्रकृति के नियमों की अवधारणा हुई होती तो होता तो इस संसार में दुख एवं पीड़ा का प्रभाव उसमें जागतिक कार्य प्रपंचों में परिवर्तन करने की होता। हम देखते हैं कि इस संसार में मनुष्य भी शक्ति होती। हम देख चुके हैं कि यह सत्य अनेक कष्टों को भोगता है। यदि ईश्वर या पर- नहीं है। इसका कारण यह है कि यदि ऐसा होता मात्मा को ही निर्माता, नियंता एवं भाग्य विधाता तो परमकरुण ईश्वर के द्वारा निर्धारित संसार के माना जावे तो इसके अर्थ होते हैं कि ईश्वर इतना जीवों के जीवन में किंचित भी दुख, अशान्ति एवं 1-16 महावीर जयन्ती स्मारिका 78 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014024
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1978
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1978
Total Pages300
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size7 MB
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