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________________ जिन्होंने अपने पैसे के बल पर कलाकारों को खरीद सुन्दर भवनों, मंदिरों, चित्रों और मूर्तियों आदि का निर्माण कराया उनके गुणगान करते तो हमारी जिह्वा और लेखनी नहीं थकती किन्तु जिन्होंने अपने रक्त बिन्दुओं से उस कला में प्राण कू के उनका श्राज कोई नाम भी नहीं लेता | बड़े बड़े सेमिनारों में उन पूंजीपतियों के गुणगान तो आपको सुनाई पड़ेंगे किन्तु भूखे या प्राधे भूखे पेट रह कर काम करने वाले कलाकारों के संबंध में जानने का प्रयत्न भी हमारा नहीं होता यह कैसी स्थिति है । अस्तु, मुनि सुव्रतनाथ तीर्थकर की एक कनपूर्ण श्वेताम्बर जैन मूर्ति का वर्णन यहां प्रस्तुत है । मेर का मावठा सरोवर ही गुलाब सागर है उसके निकटस्थ दलाराम के बाग स्थित संग्रहालय में कई महत्वपूर्ण जैन कलाकृतियाँ संगृहीत हैं जिनमें दो तो स्तम्भ ही हैं। इनका अध्ययनपूर्ण अधिकृत वर्णन आज तक देखने में नहीं आया । यह एक और उदाहरण है कला और संस्कृति के प्रति हमारी उदासीनता का । - पोल्याका श्राम्बेर संग्रहालय की तीर्थंकर मुनिसुव्यतनाथ की प्रतिमा राजस्थान के प्रसिद्ध गुलाबी नगर जयपुर के समीप आम्बेर का विख्यात दुर्ग है । इस दुर्ग बाह्य भाग में स्थित सुन्दर गुलाब सागर है जिसके निकट ही ग्राम्बेर का पुरातत्त्व संग्रहालय है । इस संग्रहालय में राजस्थान के विभिन्न भागों से प्राप्त एवं विभिन्न कालों की अनेक दुर्लभ कलाकृतियाँ हैं जिनको देखने देश-विदेश के अनेक पर्यटक प्रायः प्रतिदिन ही यहाँ आते हैं । इसी संग्रहालय में काले कसौटी पत्थर की बनी २० वें तीर्थकर मुनिसुव्रतनाथ की एक लगभग महावीर जयन्ती स्मारिका 78 Jain Education International डॉ० ब्रजेन्द्र नाथ शर्मा डी० लिट्० कीपर, राष्ट्रीय संग्रहालय, नई दिल्ली श्रादमकद मूर्ति भी प्रदर्शित है । प्राचीन जैन ग्रन्थों के अनुसार हरिवंश कुल में जन्मे मुनिसुव्रतनाथ मगध नरेश सुमित्र के पुत्र थे जिनकी राजधानी राजगृह थी। इनकी माता का नाम कुछ ग्रन्थों के अनुसार सोम तथा कुछ के अनुसार पद्मावती था । उत्तर पुराण के अनुसार राजगृह में ही मुनिसुव्रत का जन्म हुआ था । जैन प्राचार्य हेमचन्द्र ने लिखा है कि यह प्रारम्भ से ही मुनि अथवा साधु स्वभाव के थे और साथ ही व्रतों का पूर्ण पालन करने के कारण इनका नाम भी मुनिसुव्रत पड़ गया था। इनका लछन कूर्म है । For Private & Personal Use Only 2-143 www.jainelibrary.org
SR No.014024
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1978
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1978
Total Pages300
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size7 MB
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