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________________ दुख पाइन एहि तनु हेरे । कि सूर और तुलसी का साध्य प्रत्यक्ष और साकार रविकर-नीर बस अति दारुन, रहा । मीरा का भी, परन्तु सगुण भक्तों में कान्ता मकर रूप तेहि माहीं। भाव मीरा में ही देखा जाता है इसलिए प्रेम की बदन-हीन सो ग्रस चराचर, दीवानी मीरा में जो मादकता है वह न तो सूर पान करन जे जाहीं। में है और न तुलसी में और न जैन कवियों में । कोऊ कह सत्य, भूठ कह कोउ, यह अवश्य है कि जैन कवियों ने अपने परमात्मा जुगल प्रबल कोउ मान । की निगुण और सगुण, दोनों रूपों की विरहतुलसीदास परिहर तीन भ्रम, वेदना को सहा है। एक यह बात भी है कि सो आपन पहिचान ।11 मध्यकालीन जैनेतर कवियों के समान हिन्दी जैन कवियों के बीच-निर्गुण अथवा सगुण भक्ति तुलसी जैसे सगुणोपासक भक्त भी अपने शाखा की सीमा-रेखा नहीं खिवी। वे दोनों आराध्य को किसी निणोपासक रहस्यवादी साधक अवस्थाओं के पुजारी रहे हैं क्योंकि ये दोनों से कम रहस्यमय नहीं बतलाते । रामचरित मानस में उन्होंने लिखा है ---- अवस्थायें एक ही आत्मा की मानी गई हैं। उन्हें ही जैन पारिभाषिक शब्दों में सिद्ध और अर्हन्त "प्रादि अन्त कोउ जासु न पावा । कहा गया है। मति अनुमानि निमम जस गावा ।। बिनु पद चलइ सुनइ बिनु काना। ___ मौरा की तन्मयता और एकाकारता कर बिनु करम करइ विधि नाना ॥" बनारसीदास और आनन्दवन में अच्छी तरह से देखी जाती है । रहस्य साधना के बाधक तत्वों में इस प्रकार सगुणोपासक कवियों में मीरां को माया, मोह प्रादि को भी दोनों परम्पराओं ने छोड़कर प्रायः अन्य कवियों में रहस्यात्मक तत्वों समान रूप से स्वीकार किया है। साधक तत्वों में की उतनी गहरी अनुभूति नहीं दिखाई देती। से इन भक्तों में भक्ति तत्व की प्रधानता अधिक इसका कारण स्पष्ट है कि दाम्पत्यभाव में प्रेम रही है। भक्ति के द्वारा ही उन्होंने अपने आराध्य की जो प्रकर्षता देखी जा सकती है वह दास्य भाव को प्राप्त करने का प्रयत्न किया है । यही उनकी अथवा सख्य भाव में संभव कहाँ ? इसके बावजूद मुक्ति का साधन रहा है। उनमें किसी न किसी तरह साध्य की प्राप्ति में उनकी भक्ति सक्षम हुई है और उन्होंने परम ब्रह्म साधना का पथ सुगम बनाने और सुझाने के की अनिर्वचनीयता का अनुभव किया है। सन्दर्भ में जैन एवं जैनेतर सभी सन्तों और भक्तों ने गुरु की महिमा का गान किया है। मीरा के सगुण रहस्य भावना और जैन रहस्य भावना--- हृदय में कृष्ण प्रेम की चिनगारी बचपन से ही जैसा हम पीछे देख चुके हैं सगुण भक्तों ने विद्यमान थी। उसको प्रज्ज्वलित करने का श्रेय भी ब्रह्म को प्रियतम मानकर उसकी साधना की उनके गुरु रैदाम को है जो एक भावुक भक्त है । जैन भक्तों ने भी सकल परमात्मा का वर्णन एवं प्रेमी सन्त थे । मीरां के गुरु रैदास होने में किया है जो सगुण ब्रह्म का समानार्थक कहा जा कुछ समालोचक सन्देह व्यक्त करते हैं। जो भी हो, सकता है। मीरा में सूर और तुलसी की अपेक्षा मीरा के कुछ पदों में जोगी का उल्लेख मिलता है रहस्यानुभूति अधिक मिलती है। इसका कारण है जिसने मीरा के हृदय में प्रेम की चिनगारी महावीर जयन्ती स्मारिका 78 2-63 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014024
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1978
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1978
Total Pages300
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size7 MB
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