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________________ निर्गुण अथवा सगुण के घेरे में नहीं रखा जा सकता। उन्होंने यद्यपि निगुणोपासना अधिक की है पर सगुणोपासना की ओर भी उनकी दृष्टि गई हैं । उनका उद्देश्य परिपूर्ण ज्योति रूप सत्पुरुष को प्राप्त करना रहा है। सूर की मधुर भक्ति के सम्बन्ध में डॉ० हरवंशलाल शर्मा के विचार दृष्टव्य हैं---"हम भक्त सूरदास की अन्तरात्मा का अन्तर्भाव राधा में देखते हैं । उन्होंने स्त्रीभाव को तो प्रधानता दी है परन्तु परकीया की अपेक्षा स्वकीया भाव को अधिक प्रश्रय दिया है और उसी भाव से कृष्ण के साथ घनिष्टता का सम्बन्ध स्थापित किया है । कृष्ण के प्रति गोपियों का ग्राकर्षण ऐन्द्रिय है, इसीलिए उनकी प्रीति को काम रूपा माना है । सूर की भक्ति का उद्देश्य भक्त को संसार के ऐन्द्रिय प्रलोभनों से बचाना है, यही कारण है कि उनकी भक्ति भावना स्त्री- भाव से ओतप्रोत है जिसका प्रतिनिधित्व गोपियां करती हैं। वे कृष्ण में इतनी तल्लीन हैं कि उनकी कामरूपा प्रीति भी निष्काम है । इसलिए संयोग-वियोग दोनों ही अवस्थात्रों में गोपियों का प्रेम एक रूप है । प्रात्मसमर्पण और अनन्यभाव मधुर भक्ति के लिए आवश्यक है जो सूरसागर की दान लोला, चीरहरण और रास लीला में पूर्णता को प्राप्त हुए हैं। सगुणोपासना में रहस्यात्मक तत्वों की अभिव्यक्ति इष्ट के साकार होने के कारण उतनी स्पष्ट नहीं हो पाती । कहीं-कहीं रहस्यात्मक अनुभूति के दर्शन अवश्य मिल जाते हैं। सूर ने प्र ेम की व्यंजना के लिए प्रतीक रूप में प्रकृति का वर्णन रहस्यात्मक ढंग से किया है । जो उल्लेखनीय है- चल सखि तिहि सरोवर जाहि । जिहिं सरोवर कमल कमला रवि बिना विकसाहि । हंस उज्ज्वल पंख निर्मल, अॅग मलि मलि न्हाहिं । 2-62 Jain Education International मुक्ति-मुक्ता अनगिने फल, तहां चुनि त्रुनि खांहि । 9 सूर की अन्योक्तियों में कहीं कहीं रहस्यात्मक अनुभूति के दर्शन होते हैं चकई री चल चरन सरोवर, जहां न मिलन विछोह । एक अन्य स्थान पर भी सूर ने सूरसागर की भूमिका में अपने इष्टदेव के साकार होते हुए भी उसका निराकार ब्रह्म जैसा वर्णन किया है विगत गति कछु कहत न आवै । ज्यों गू गे मीठे फल को, रस अन्तरगत ही भावै ॥ परम स्वाद सबहीं सु निरन्तर, अमित तोष उपजावै । मन वानी को अगम अगोचर, सो जाने जो पावै ॥ रूप रेख गुन जाति जुगति बिन निरालंब मन धावं । सब विधि अगम विचारहि ताते सूर सगुन पद पावें ॥30 सूर के गोपाल पूर्ण ब्रह्म हैं। मूल रूप में वे निर्गुण हैं पर सूर ने उन्हें सगुण के रूप में ही प्रस्तुत किया है । यद्यपि सगुण और निर्गुण, दोनों का आभास मिल जाता है । तुलसी भी सगुणोपासक हैं पर सूर के समान उन्होंने भी निर्गुण रूप को महत्व दिया है । उनको भी केशव का रूप अकथनीय लगता है- केशव ! कहि न जाइ का कहिये । देखत तव रचना विचित्र हरि ! समुझि मनहिं मन रहिये || सून्य भीति पर चित्र, रंग नहि, तमु बिनु लिखा चितेरे । धोये मिटइ न मरइ भीति, For Private & Personal Use Only महावीर जयन्ती स्मारिका 78 www.jainelibrary.org
SR No.014024
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1978
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1978
Total Pages300
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size7 MB
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