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________________ अनेकधर्मात्मक है, एक धर्म रूप प्रमाणित नहीं लिखा कि सारे नैतिक समुत्थान में गक्तित्व का होता। तो, जगत और पदार्थों के नानात्व को समादर एक मौलिक महत्व रखता है। जैन दर्शन मिटाया नहीं जा सकता। के अनकांत का महत्व इसी आधार पर है कि उसमें व्यक्तित्व का सम्मान निहित है। जहां नाना धर्म रहेंगे और नाना जन रहेंगे। व्यक्तित्व का समादर होता है, वहां स्वभावतः अावश्यकता इस बात की है कि उनमें आपस में साम्प्रदायिक संकीर्णता नहीं रह सकती। प्रेमभाव हो । वह सहिष्णुता से उत्पन्न होता है। इस सदर्भ में महात्मा गान्धी का कथन इष्टव्य है, अन्यत्र उनका विचार है कि अनेकान्त और "इस समय अावश्यकता इस बात की नहीं है कि अहिंसा में कोई अन्तर नहीं है। उन्होंने लिखा, सबका धर्म एक बना दिया जाये, बल्कि इस बात "विचार-जगत् का अनेकांत दर्शन ही नैतिक जगत् की है कि भिन्न-भिन्न धर्म के अनुयायी और प्रमी में प्राकर अहिंसा के व्यापक सिद्धान्त का रूप परस्पर आदरभाव और सहिष्णुता रक्खें। हम धारण कर लेता है । इसीलिये जहाँ अन्य दर्शनों सब धर्मों को मृतवत् एक सतह पर लाना नहीं में परमत-खण्डन पर बड़ा बल दिया गया है, वहाँ चाहते बल्कि चाहते हैं कि विविधता में एकता जैन दर्शन का मुख्य ध्येय अनेकांत सिद्धान्त के हो। हमें सब धर्मों के प्रति समभाव रखना प्राधार पर वस्तुस्थिति-मूलक विभिन्न मतों का चाहिए। इससे अपने धर्म के प्रति उदासीनता नहीं समन्वय रहा है।"61 उत्पन्न होती, परन्तु स्वधर्म-विषयक प्रेम अन्धप्रेम न रहकर ज्ञानमय हो जाता है। सब धर्मो के अपरिग्रहवाद श्रमण संस्कृति का ऐसा सिद्धान्त प्रति समभाव पाने पर ही हमारे दिव्य चक्षु खुल है, जो आज के युग के लिये भी अनिवार्य है। सकते हैं। धर्मान्धता और दिव्य-दर्शन में उत्तर- जहाँ कालंमास का साम्यवाद मानव की विषमदक्षिण जितना अन्तर है ।''59 किन्तु यह समभाव तानों का भौतिकवादी समाधान है; वहां और सहिष्णुता कैसे उत्पन्न हो ? उसका एकमात्र अपरिग्रहवाद प्राध्यात्मिकता के आधार पर विषउत्तर है - अनेकांत । आज उसकी बहुत अधिक मतानों को सहज स्वाभाविक ढंग से नकार देता अावश्यकता है। उसे समय के अनुरूप रचनात्मक है। एक बाह्य है, दूसरा प्रान्तरिक । एक हलका रूप दिया जा सकता है, किन्तु शास्त्रीय परिवेश से है, दूसरा ठोस । एक में पूजीपतियों को कोई स्थान निकाल कर ही। नहीं, दूसरे में है । दूसरा मानव के प्रत्येक वर्ग और उसके स्वतन्त्र विचारों का समादर करता अनेकांत के सम्बन्ध में डॉ० मंगलदेवशास्त्री है । उसमें सबको स्थान है। वह साम्यवाद और का कथन है, "प्रत्येक तत्व में अनेकरूपता स्व. साम्यवादियों की भाँति दूसरों के विचारों पर भावतः होनी चाहिए और कोई भी दृष्टि उन । लदता नहीं। सबका एक साथ तात्विक प्रतिपादन नहीं कर . सकती। इसी सिद्धान्त को जैन दर्शन की परिभाषा अपरिग्रहवाद, अ+परिग्रह से बना है। परिमें अनेकांत कहा गया है। जैन दर्शन का तो यह ग्रह न करना इसका अर्थ है । परिग्रह का अर्थ है आधार स्तम्भ है ही, परन्तु वास्तव में प्रत्येक धन, जमीन और विभिन्न भौतिकवादी वस्तुओं का दार्शनिक विचारधारा के लिए भी इसको आवश्यक संग्रह । तीर्थकर पार्श्वनाथ ने स्त्री को भी परिग्रह मानना चाहिए।"60 एक दूसरे स्थान पर उन्होंने माना था । इसी कारण अपरिग्रहवाद में स्त्री-त्याग महावीर जयन्ती स्मारिका 78 2-55 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014024
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1978
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1978
Total Pages300
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size7 MB
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