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________________ जायसी । इन्होंने हिंसक शाक्तों को तो बुरा कहा देश की संस्कृति का अनिवार्य तत्त्व था। यह ही, उन अहिंसकों को भी फटकारा, जिन्होंने श्रमणधारा की एक महत्वपूर्ण देन थी। अहिंसा के नाम पर कर्माडम्बरों का घटाटोप रच रक्खा था। इस प्रकार अहिंसा का रथ जो चला अनेकांत समन्वय का प्रतीक है-श्रमण तो चलता ही रहा, रुका नहीं। बाधाए पायीं, प्राचार्यों के तटस्थ हृदय का द्योतक है। उसमें रुकावटें समुपस्थित हुई, किन्तु वह शान के साथ पक्ष-विपक्ष नहीं । हठ-दुराग्रह नहीं। विरोध नहीं, चलता रहा । फिर पाये गान्धीजी। उन्होंने इस रथ विरोधाभास नहीं । सभी दृष्टियों से विचार खुला को राजनीति की टेढ़ी-मेढ़ी पगडण्डियों पर घुमा है । कुछ ने ऐकान्तिक दृष्टिकोण से सोचा, तो दिया । वहां भी वह खरा प्रमाणित हुआ। उन्हें वह दोष-पूर्ण लगा, उपहासास्पद प्रतीत गान्धीजी को सफलता मिली और राजनीति को हुा । यह उनका भ्रम ही था, जो बाद में ठीक नई परिभाषा । राजनीतिज्ञों ने उसे समझा, हो गया । सिद्धान्त ऐसा जो विरोधों में भी अविरोध वैज्ञानिकों ने सराहा और गणपतियों ने उसकी की, अनेकांत में एकता की और वैषम्य में साम्य प्रशंसा की। माज अहिंसा समूचे जगत का प्रिय की स्थापना करता है। अत: यह ही धर्म की विषय है। परिभाषा की कसौटी पर खरा उतरता है । धर्म वह है जो अविरोधी हो। यदि एक धर्म में दूसरे डॉ. मंगलदेवशास्त्री ने 'जैन दर्शन' के धर्म का विरोधी तत्व है, तो वह परमसत्य रूप नहीं प्राक्कथन में लिखा है, "भारतीय विचारधारा में है, उसमें कहीं कमी है, यह स्पष्ट ही है। महाअहिंसावाद के रूप में अथवा परमत-सहिष्णुता के भारत के वनपर्व में लिखा है, 'धर्म यो बाधते रूप में अथवा समन्वयात्मक भावना के रूप में धर्मो न स धर्मः कुवर्त्म तत् । अविरोधात्तु यो धर्मः जैन-दर्शन और जैन-विचारधारा की जो देन है, स धर्मः सत्यविक्रम ।।'' 57 इसका अर्थ है-जो धर्म उसको समझे बिना वास्तव में भारतीय संस्कृति के दूसरे धर्म को बाधा पहुंचावे, दूसरे धर्म से रगड़ विकास को नहीं समझा जा सकता।' 55 डॉ० पैदा करे, वह धर्म नहीं, वह तो कुमार्ग है। धर्म कालिदास नाग का कथन है, “यदि किसी ने आज तो वह होता है, जो अन्य धर्म विरोधी न हो। महान परिवर्तन करके दिया है तो वह अहिंसा सिद्धान्त ही है। अहिंसा सिद्धान्त की खोज और इस विश्व में अनेक धर्म हैं। उन्हें मिटाकर प्राप्ति संसार की समस्त खोजों और प्राप्तियों से एक नहीं किया जा सकता। यह कथन उचित महान् है । मनुष्य का स्वभाव है नीचे की पोर नहीं है कि जब परमसत्य एक है, तो धर्म भी एक जाना, किन्तु जैन तीर्थ करों ने सर्व प्रथम यह होना चाहिए । फिर तो, परमब्रह्म एक है तो जीव बताया कि अहिंसा का सिद्धान्त मनुष्य को भी एक ही होना चाहिए। ऐसा होता नहीं। ऊपर उठाता है। दोनो ही भारत के प्रसिद्ध अथर्ववेद में ठीक ही लिखा है, 'जन विभृती विद्वान् हैं। उन्होंने हलके ढंग से नहीं लिख दिया बहुधा विवाचसं, नाना धर्माणं पृथिवरौ यर्थहै और न अभ्यास-वशात् ही लिखा है। उनके कसम ॥58 इसका अर्थ है--पृथ्वी बहुत से जनों कथन में सार्थकता है। यह सच है कि भारतीय को धारण करती है जो पृथक धर्मों के मानने वाले संस्कृति के विकास को समझने के पहले अहिंसा और भिन्न-भिन्न भाषाएं बोलने वाले हैं । जगत ही को समझना अनिवार्य है। अर्थात् अहिंसा इस नहीं वस्तु तक नाना धर्मात्मक होती है। पदार्थ 2-54 महावीर जयन्ती स्मारिका 78 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014024
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1978
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1978
Total Pages300
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size7 MB
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