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________________ ओर खिंचने लगा। पं० सुन्दरलाल ने 'हजरत था । उनका व्यक्तित्व सर्वमान्य, सार्वजनिक, अखण्ड ईसा और ईसाई धर्म' में लिखा है, "उस जमाने और अबाधित था । यही कारण है कि जैन, की तवारीख से पता चलता है कि पश्चिमी वैदिक, वैष्णव आदि सभी सम्प्रदायों के ग्रन्थों में एशिया, यूनान, मिश्र और इथोपिया के पहाड़ों उनका समभाव से स्मरण किया गया है । सम्राट और जंगलों में उन दिनों हजारों जैन संत महात्मा भरत-जो ऋषभदेव के ज्येष्ठ पुत्र थे, के साथ जा-जा कर जगह-जगह बसे हुए थे। ये लोग वहाँ भी यही बात थी। सभी प्राचार्यों-जैन और अजैन बिलकुल साधुओं की तरह रहते और अपने त्याग दोनों ने उन्हें मनु की संज्ञा से विभूषित किया है। और अपनी विद्या के लिए वहाँ मशहर थे।45 भगवज्जिनसेनाचार्य ने महापुराण (३ २३२) में डॉ. नीलकंठदास ने अपने ग्रन्थ 'उड़ीसा में जैन धर्म' लिखा है, "वृषभौ भरतेशश्च तीर्थचक्रभृतो मनुः ।" में लिखा है, "जैन धर्म संसार के सारे धर्म तथा मैं पहले ही कह चुका हूं कि दोनों ने यदि एक ओर मानविक आत्मविकास के मूल में है। कहा जा जगत् को साधा तो दूसरी ओर निःश्रेयस को भी सकता है कि इसी के ऊपर मानव-समाज के विकास प्राप्त किया । एक ओर भौतिकवाद को व्यवस्थित की प्रतिष्ठा आधारित है ।"46 किया तो दूसरी ओर अध्यात्मवाद को भी चरमो त्कर्ष पर पहुंचाया। उन्होंने ऐसा रास्ता बताया जो इस भाँति महर्षि पतञ्जलि दोनों में शाश्वतिक दोनों तत्वों की प्राप्ति का सुगम उपाय था। यह विरोध स्वीकार करते हैं, किन्तु यह विरोध की शताब्दियों चला । दोनों धाराओं में कोई वैमनस्य बात बहुत आगे चल कर प्रारम्भ हुई । गीता के और मनमुटाव नहीं हुआ। समय तक दोनों में मैत्रीभाव था और दोनों एकदूसरे की पूरक थीं । गीता में मुनि का प्रशंसा- इस सन्दर्भ में बाबू गुलाबरायजी का कथन मूलक एक श्लोक है दृष्टव्य है, "वैदिक और श्रम, संस्कृति में साम जस्य की भावना के आधार पर आदान-प्रदान दुःखेष्वनुद्विग्नमनः सुखेषु विगतस्पृहः । हुआ और इन्होंने भारतवर्ष की बौद्धिक एकता बनाये वीतरागमयक्रोधः स्थितधी मुनिरुच्यते ।।17 रखने का महत्वपूर्ण कार्य किया ।"49 यह साम गौता में ही नहीं, ऋग्वेद में भी मनिधर्म का ञस्य की भावना स्वयं ऋषभदेव और भरत ने अच्छा विवेचन मिलता है । इस सम्बन्ध में अपने जीवन के द्वारा प्रस्तुत की थी, अतः वह बहुत डॉ० मंगलदेब शास्त्री का एक कथन दृष्टव्य है, समय तक प्राणवन्त बनी रही । श्री वाचस्पति "ऋग्वेद के एक सूक्त (१०/१३६) में मुनियों का गैरोला ने भी अपने 'प्राचीन भारतीय दर्शन' नाम अनोखो वर्णन मिलता है । उनको वातरशना के ग्रन्थ में दोनों धाराओं के पूरक और समन्वय दिगम्बर पिशंगा वसतेमला- मत्तिका को धारण की बात कही है । उनका कथन है, “पहली विचारकरते हये पिंगल वर्ण और केशी-प्रकीर्ग केश इत्यादि धारा परम्परा-मूलक, ब्राह्मण या ब्रह्मवादी रही कहा गया है। यह श्रीमद्भागवत् (पंचमस्कंध) में है, जिसका विकास वैदिक साहित्य के वृहत् स्वरूप दिये हए जैनियों के आदि तीर्थंकर ऋषभदेव के में प्रकट हुआ । दूसरी विचारधारा पुरुषार्थमूलक, वर्णन से अत्यन्त समानता रखता है। वहाँ स्पष्ट प्रगतिशील, श्रामण्य या श्रमण-प्रधान रही है, जिसमें शब्दों में कहा गया है कि ऋषभदेव ने वातरशना आचरण को प्रमुखता दी गई । ये दोनों विचारश्रमण मुनियों के धर्मों को प्रगट करने की इच्छा धाराएं एक-दूसरे की प्रपूरक रही हैं । इस राष्ट्र की से अवतार लिया था ।''48 ऋषभदेव दोनों धारागों बौद्धिक एकता को बनाये रखने में उन दोनों का के सन्धिस्थल थे। उनका व्यक्तित्व समन्वयकारी समानतः महत्वपूर्ण स्थान है ।"50 2-52 महावीर जयन्ती स्मारिका 78 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014024
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1978
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1978
Total Pages300
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size7 MB
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