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________________ हो दीक्षा ले तप करने चले गये थे, अत: राजुल जहां श्रमणधारा पूर्णरूप में अहिंसक रही-द्रव्य का विवाह न हो सका और वह भी कुमारी अवस्था रूप से भी, भाव रूप से भी, बाह्य रूप से भी और में ही दीक्षा ले अजिका हो गई थी। शाकटायन स्वयं अन्तः रूप से भी, वहाँ 'वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति' श्रमण-संघ के प्राचार्य थे-"महाश्रमणसंघाधिप- को अपना कर वैदिक धारा उत्तरोत्तर हिंसा-परक तिर्यः शाकटायन: ।"11 अतः श्रमरगों के सम्बन्ध में होती गई। उसके यज्ञों में बलि को प्रमुखता मिली। उनकी जानकारी प्रामाणिक कही जा सकती है। कर्मकाण्ड बढ़ा और आडम्बर धर्म कहे जाने लगे। पाणिनीय ने भी अष्टाध्यायी (2/170) में 'कुमारः इसी कारण, उनमें असहिष्णुता बढ़ी तो बढ़ती ही श्रमणादिभिः' लिख कर शाकटायन का समर्थन ही गई । डाँ. मंगलदेव शास्त्री का कथन है, "ऋषि या किया है। वैदिकी संस्कृति में कर्मकाण्ड की प्रधानता और किन्तु पाणिनीय के उपर्युक्त मूत्र पर पात असहिष्णुता की प्रवृत्ति बढ़ी तो श्रमरण-संस्कृति या जलि के महाभाग्य 3/419, येषां च विरोधः मुनि संस्कृति में अहिंसा, निरामिषता तथा विचारशाश्वतिकः इत्यस्यावकाश: श्रमणः ब्राह्मणम् ।” सहिष्णुता की प्रवृत्ति दिखाई पड़ी ।" श्रमणों का स्पष्टीकरण आवश्यक प्रतीत होता है । यहां के उदारता-परक दृष्टिकोण का उत्तम निदर्शन हैशाश्वतिक शब्द ध्यान देने योग्य है। श्रमण और अनेकांत । इसे सापेक्ष दृष्टि कहें तो उचित ही ब्राह्मणों में विरोध था और वह भी ऐसा-वैसा होगा। इससे वस्तु स्वभाव सही रूप में समझा जा नहीं, शाश्वतिक । जो विरोध हेतु या विरोध जन्य सका । इसमें हठ या आग्रह को कोई स्थान नहीं। होता है, वह उस हेतु के दूर होने पर समाप्त हो इससे तटस्थ और निष्पक्ष मूल्यांकन हो पाता है। जाता है, किन्तु यह तो शाश्वतिक है। शाश्वतिक यह दृष्टि वही अपना पाता है जो सहिष्ण और वही हो सकता है, जिसके मूल सिद्धान्त में उदार हो। दूसरी ओर ऐकान्तिक दृष्टि होने से विरोध हो । अर्थात् यह विरोध सैद्धा- हठ और प्राग्रह स्वतः प्रविष्ट हो गये। न्तिक है किसी निमित्त से उत्पन्न नहीं हुआ । एक में निवृत्ति-मूलकता थी, तो दूसरी में ब्राह्मण वैदिक धारा का प्रतिनिधि था और श्रमण प्रवृत्ति प्रधान थी। निवृत्ति के ही कारण श्रमण श्रमणधारा का। जहां वैदिकधारा एकेश्वरवादी विशुद्ध अध्यात्मवादी रहे । श्रीमद्भागवत् का यह थी, वहाँ श्रमणधारा अनेकेश्वरवादी। श्रमणों का कथन सत्य है कि-'श्रमणा वातरशना आत्मविचार था कि राग-द्वेष का समूल नाश करके विद्या विशारदाः ।' अनन्त शक्तियों की स्रोत प्रत्येक व्यक्ति ब्रह्म बन सकता है, वह केवल अपनी आत्मा को ही उन्होंने ब्रह्म माना, उसी की ज्ञाता और द्रष्टा होता है, कर्ता, भर्ता और हर्ता भक्ति की और उसे ही प्राप्त करने का प्रयत्न किया नहीं । इस प्रकार उन्होंने प्रत्येक जीव में, अपने ही उससे बड़ा किसी को नहीं माना, न राजा को, न तप-समाधि-रूप श्रम से ईश्वरत्व प्राप्त कर लेने की सम्राट को । यही कारण है कि वे किसी के सामने सम्भावना पर बल दिया । ऋषभदेव ईश्वर के कभी नहीं झुके । सम्राट सिकन्दर के पास जाने से अवतार नहीं थे. अपितु उन्होंने अपने ही समाधि- श्रमण प्राचार्य दोलामस ने स्पष्ट इनकार कर तेज से, अपने कर्मों को भस्म करके ब्रह्म पद प्राप्त दिया था, तब सिकन्दर को स्वयं उनके पास आना किया था 142 पार्श्वनाथ भी अपने योग रूपी खड्ग पड़ा। वह उनकी आध्यात्मिकता से अत्यधिक की तीखी धार से मोह-शत्रु को नष्ट करके प्रभावित हुआ। उनमें से एक कल्याण मुनि को पार्हन्त्यलक्ष्मी को प्राप्त कर सके थे ।43 सभी तीर्थ- वह अपने साथ यूनान ले गया था। फिर, युनान करों और मोक्षगामियों के साथ यही बात थी। जो कि भोग-प्रधान देश था, प्राध्यात्मिकता की महावीर जयन्ती रमारिका 78 2-51 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014024
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1978
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1978
Total Pages300
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size7 MB
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