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________________ उन्होंने अपने दोषों को अपने समाधि तेज से भव के एक स्मरण से , श्रेयांसकुमार ने अपने भाई भस्म कर दिया। फिर, जगत को सही तत्व का और भावज के साथ भगवान को इक्षु के प्रासुक उपदेश दिया और ब्रह्मपद से सुशोभित हए । तीर्थ- रस का आहार दिया । यही भगवान् का व्रत था। कर पार्श्वनाथ ने राज-पद भोगा और फिर, उन्होंने पाहार लिया। इस अाहार दान की महिमा "स्वयोगनिस्त्रिशनिशातधारया, निशात्य यो दुर्जय- सभी प्राचीन ग्रन्थों में सुरक्षित है । मैं इसे इस मोह विद्विषं । अवापदामचिन्त्यऽऽहन्त्यप्रभिनयमद्- प्रकार मानता हूँ कि भगवान् ने जिस इक्ष दण्ड से भुत, प्रिलोकपूजातिशया, स्पदं पदम् ॥' अर्थात् रस निकालने की विधि बताई थी, उसे प्राध्याअपने योग रूपी खड्ग की पैनी धार से मोह रूपी त्मिक उपयोग में प्रतिष्ठित कर, प्रजात्रों के मस्तिशत्रु को काट कर, अचिन्त्य और तीनों लोको की ष्क में उसकी महिमा और भी बढ़ा दी। बढ़ाई ही पूजा के स्थान स्वरूप प्रार्हन्त्य पद को प्राप्त कर नहीं, स्थायी कर दी। आज इक्षुदण्ड और उसके लिया । तात्पर्य है कि क्षत्रिय का अर्थ केवल सांसा- रस का विश्व प्राभारी है। रिक जीत ही नहीं, अपितु प्राध्यात्मिक जीत है। प्राकृतिक अवरोध कि कल्पवृक्षों से भोजन की उसके दो दुश्मन हैं-एक बाह्य है तो दूसरा प्रान्त व्यवस्था निःशेषप्रायः हो गई । तब भगवान् ने रिक । एक स्थूल है तो दूसरा सूक्ष्म । एक आसान प्रजाओं को कृषि की शिक्षा दी। कृषि का अर्थ है दूसरा मुश्किल । दोनों का विजेता ही सच्चा क्षत्रिय है। है-कृषिः भूकर्षणे प्रोक्ता । पृथ्वी के विलेखन को कृषि कहते हैं। जैसे अनार को चीरने से उसमें से भगवान् ऋषभदेव के समय में इक्षुदण्ड स्वयं रस पूर्ण दाने निकलते हैं, उसी प्रकार हल मुख से संभूत थे, किन्तु लोग उनका उपयोग करना नहीं विदीर्ण करने पर प्राण रक्षक अन्न प्राप्त होता है । जानते थे । ऋषभदेव ने उनके रस निकालने की उन्होंने खेती करने का ढंग बताया और उसमें विधि बताई । शायद इसी कारण वे इक्ष्वाकु कह- प्रजात्रों को निष्णात किया । वे खेती के पहले उप. लाये । महापुराण में लिखा है "प्रावनाच्च तदि- देशक थे। प्राचार्य समन्तभद्र ने लिखा हैक्षूणां रससंग्रहणे नृणाम् । इक्ष्वाकुरित्यभूद् देवो "प्रजापतिर्यः प्रथम जिजीविषुः । जगतामभिसम्मतः ।।": अावश्यकचूरिण में 'अक्खु शशास कृष्यादिषु कर्मसु प्रजाः ।।"26 भक्खणे, 4 कहा गया है इस प्रकार 'इक्खु' और 'अकु' मिल कर 'इक्खागो' प्राकृत में और 'इक्ष्वाकु उस समय खेती का मुख्य साधन था वृषभ । संस्कृत में बनता है । आवश्यक नियुक्ति में 'सक्को उन्होंने उस पर बल दिया। उसे महत्वपूर्ण घोषित वसद्ववणे इक्बु अगू तेण हुन्ति इक्खागो ।"25 किया, यहां तक कि इस आधार पर उन्होंने अपना लिखा है। नाम वृषभदेव कहलाना गौरवास्पद समझा। भगवान को एक वर्ष से पाहार नहीं मिला उन्होंने वृषभ को अपना मुख्य चिन्ह बनाया । था। उन्होंने अपने मन में एक व्रत लिया था, तद वे वृषभलाच्छन कहलाये। ग्राज भारतीय पुरातत्व नुरूप आहार उपलब्ध नहीं होता था। एक दिन में वृषभदेव की मूर्तियां वृषभ चिन्ह से ही पहचानी हस्तिनापुर पहुंचे। वहां के महाराजा सोमप्रभ, जाती हैं । आगे चलकर वृषभ शब्द 'श्रेष्ठ' अर्थ उनकी महारानी लक्ष्मीमती और छोटे भाई श्रेयांस का द्योतक हो गया, शायद वह वृषभदेव के द्वारा कुमार ने पूजा अर्चा पूर्वक स्वागत किया । पूर्व चिह्नरूप में धारण किये जाने के कारण ही । महावीर जयन्ती स्मारिका 78 2-47 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014024
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1978
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1978
Total Pages300
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size7 MB
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