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________________ सप्तभंगी के प्रस्तुत सांकेतिक रूप में हमने में अन्य वस्तुनों के गुण धर्मों की सत्ता भी केवल दो अपेक्षानों का उल्लेख किया है किन्तु मान ली जावेगी तो फिर वस्तुप्रों का पारस्प. जैन विचारकों ने द्रव्य, क्षेत्र काल और भाव ऐसी रिक भेद ही समाप्त हो जावेगा और वस्तु का स्व चार अपेक्षाए मानी हैं। उनमें भी भाव अपेक्षा स्वरूप ही नहीं रह जावेगा,प्रतः वस्तु में पर चतुष्टय व्यापक है, उसमें वस्तु की अवस्थाओं (पर्यायों) का निषेध करना द्वितीय भग है । प्रथम भंग बताता एवं गुणों दोनों पर विचार किया जाता है। किन्तु है कि वस्तु क्या है, जबकि दूसरा भंग यह बताता यदि हम प्रत्येक अपेक्षा की सम्भावना प्रों पर विचार है कि वस्तु क्या नहीं है । सामान्यतया इस द्वितीय तो ये अपेक्षा भी प्रनन्त होगी क्योंकि भंग को 'स्यात नास्ति घट:' अर्थात किसी अपेक्षा वस्तुत्व अनन्त धर्मात्मक है । अपेक्षानों की इन से घड़ा नहीं है, इस रूप में प्रस्तुत किया जाता विविध सम्भावनाओं पर विस्तार से विचार किया - है, किन्तु इसके प्रस्तुतीकरण का यह ढंग थोड़ा जा सकता है किन्तु इस छोटे से लेख में यह सम्भव भ्रान्तिजनक अवश्य है, स्थूल दृष्टि से देखने पर इस सप्तभंगी का प्रथम भंग । स्यात प्रस्ति" एसा लगता है कि प्रथम भग म ऐसा लगता है कि प्रथम भंग में घट के अस्तित्व है । यह स्वचतुष्टय की अपेक्षा से वस्तु के भावात्मक का जो विधान किया गया था, उसी का द्वितीय धर्म या धर्मों का विधान करता है। जैसे अपने भंग में निषेध कर दिया गया है और ऐसी स्थिति द्रव्य की अपेक्षा से थह घड़ा मिट्री का है, क्षेत्र की में स्याद्वाद को सन्देहवाद या आत्म विरोधी कथन अपेक्षा में इन्दौर नगर में बना हना है, काल की करने वाला सिद्धान्त समझ लेने की भ्रान्ति हो अपेक्षा से शिशिर ऋतु का बना हा है, भाव जाना स्वाभाविक है । शकर, प्रभृति विद्वानों ने अर्थात् वर्तमान पर्याय की अपेक्षा से लाल रंग का स्याद्वाद की जो पालोचना की थी, उसका मुख्य है या घटाकार है प्रादि । इस प्रकार वस्तु के स्व प्राधार यही भ्रान्ति है । स्यात् अस्ति घट: पोर द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भाव की अपेक्षा से उसके स्यात् नास्ति घट: में जब स्यात् शब्द को दृष्टि से भावात्मक गुणों का विधान करना यह प्रथम प्रोझल कर या उसे सम्भावना के अर्थ में ग्रहण "अस्ति" नामक भंग का कार्य है। दूसरा 'स्यात कर 'अस्ति' और 'नास्ति' पर बल दिया जाता है नास्ति' नामक भग वस्तुतत्व के प्रभावाप्मक धर्म तो प्रात्म विरोध का आभास होने लगता है। जहां या वस्तु में कुछ धर्मों को अनुपस्थिति या नास्तित्व तक मैं समझ पाया हूं स्याद्वाद का प्रतिपादन करने की सूचना देता है । वह यह बताता है कि वस्त में वाले किसी भी प्राचार्य की दृष्टि से द्वितीय भंग का स्व से भिन्न पर चतुष्टय का अभाव है। जैसे यह कार्य प्रथम भंग में स्थापित किये गये गुणधर्म का घडा ताम्बे का नहीं भोपाल में बनाया उसी अपेक्षा से निषेध करना नहीं है, अपितु या तो नहीं है. ग्रीष्म ऋत का बना पा नहीं के प्रथम भंग में अस्ति रूप माने गये गुणधर्म से इतर गुण धर्मों का निषेध करना है अथवा फिर अपेक्षा वर्ण का नहीं है आदि । मात्र इतना ही नहीं वह भंग को बदल कर उसी गुण धर्म का निषेध करना होता इस बात को भी स्पष्ट करता है कि घड़ा-पुस्तक, है और इस प्रकार द्वितीय भंग प्रथम भंग के कथन टेबल कमल, मनुष्य प्रादि नहीं है । जहां प्रथम को पुष्ट करता है, खण्डित नहीं। भग यह कहता है कि धड़ा-घड़ा ही है. वहां दूसरा यदि द्वितीय भंग के कथन को उसी अपेक्षा से भंग यह बताता है कि घड़ा घट है इतर अन्य कुछ प्रथम भंग का निषेधक या विरोधी मान लिया नहीं है । कहा गया है कि सर्वमस्ति स्वरूपेरण जावेगा तो निश्चय यह सिद्धान्त संशयवाद या पररूपेण नास्ति च' अर्थात् सभी वस्तुओं की प्रात्मविरोध के दोषों से ग्रस्त हो जावेगा, किन्तु सत्ता स्व रूप से है पर रूप से नहीं। यदि वस्तु ऐसा नहीं है । यदि प्रथम भग में स्यादस्त्येव घटः महावीर जयन्ती स्मारिका 77 1-45 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014023
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1977
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1977
Total Pages326
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size25 MB
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