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________________ प्राचार्य विनोबाजी के शब्दों में श्री वीर प्रभु यह गौरव ग्रन्थ जैन धर्म, जैन दर्शन तथा समन्वयाचार्य थे, परम वीर्यवान थे और माध्यस्थ्य जैन न्याय का पूर्ण परिचय प्रदान करता है, इसमें दृष्टि सम्पन्न थे । उनकी अहिंसा, अनेकान्त और निश्चय पोर व्यवहार तथा इन दोनों की समन्वय समता की पयोधारा में समस्त मताग्रह एवं वैर. रूपी त्रिवेणी का भव्य दर्शन होता है। यह चार विरोध समाप्त हो जाते हैं । एक शुभ संयोग हमें खण्डों में विभाजित है (1) ज्योतिर्मुखम्-इसमें भगवान महावीर के 2500 वें निर्वाण महोत्सव : व्यक्ति मिथ्यात्व की निम्न भूमि से उठकर रागवर्ष की पावन बेला का भी मिला । जबकि चारों द्वेष का परिहार, कषाय निग्रह तथा इन्द्रिय दमन जैन सरिताएं एक धार बन कर बह रही थीं वह करते हुए उत्तम क्षमा प्रादि दस धर्मों की उत्कृष्ट भी सहायक सिद्ध हुआ और असम्भव सम्भव बन भूमि में प्रवेश करता है और अप्रमाद का यथार्थ गया। परस्पर विश्वास का झरना फूट पड़ा और रूप में दर्शन करता है। (२) मोक्ष-मार्ग-इसमें सभी जैन आम्नायों के मुनिराज एक ही मंच पर सम्यकदर्शन, ज्ञान तथा चारित्र का भेद तथा प्रभेद विराजमान हुए । उनका हृदय एक हुमा । स्वरूप दर्शाया है। इसी के अन्तर्गत श्रावक तथा श्रमण-धर्म का विशद परिचय भी प्राप्त हुवा है, संगीति 29 और 30 नवम्बर 1974 को जिसमें प्रव्रती श्रावकों के लिए पांच अणुव्रत व दिल्ली के अणुव्रत विहार तथा जैन बालाश्रम में पाठ शीलव्रत तथा श्रमणों के लिए पांच महाव्रत, दो दिन तक चलती रही। हर गाथा पर खूब पांच समिति, तीन गुप्ति, षडावश्यक कर्म, ध्यान, विचार-मन्थन हुआ और अनेक सुझाव पाये। द्वादश तप तथा मनुप्रेक्षा व संलेखना के निश्चयदिगम्बर व श्वेताम्बर सभी मान्यतानों के विचारक व्यवहार-परक स्वरूप सम्मिलित हैं। (3) तत्व एवं प्राचार्यगण उस मिले जुले संकलन-ग्रन्थ को दर्शन-इसमें सात तत्व, नवपदार्थ षट् द्रव्य तथा अधिकृत रूप से सर्वसम्मत मान्यता देने के लिए सृष्टि -व्यवस्था का वर्णन है । (4) स्याद्वाद समुद्यत हो गये । संगीति में सर्वसम्मत निर्णय का विषयक इसमें प्रमाण, नय, निक्षेप, सप्तसंगी, सम्पूर्ण अधिकार सभी जैन माम्नायों के मुनिराजों न्याय तथा सर्व-धर्म समन्बय का भव्य रूप सामने को सौंप दिया गया। मुनिगणों तथा श्री जिनेन्द्र पाया है। वर्णीजी ने संगीति के पश्चात् 6-7 दिन तक ग्रन्थ तीन भाषानों में संग्रहीत है । मूल लगातार घंटों बैठकर ग्रन्थ का परिशोधित रूप गाथाएं प्राकृत की हैं। उनकी संस्कृत छायाएं तथा तैयार किया और उसका नाम 'समरण मुत्त" हिन्दी अनुवाद भी हैं । प्राचार्य विद्यासागरजी निर्धारित किया । इन सभी मुनिराजों ने 7 महाराज इसके हिन्दी पद्यानुवाद में संलग्न है । दिसम्बर सन् 1974 को उस पर अपने हस्ताक्षर करके उसे सर्वमान्य घोषित किया। श्री वर्णीजी ग्रन्थ के गुजराती, मराठी और अंग्रेजी भाषामों में तब उसे लेकर बाबा के पास पवनार पहुंचे । प्रकाशन की योजना भी चल रही है। ग्रन्थ नित्य बाबाने उसे देखकर अति प्रसन्नता व्यक्त की और पारायण योग्य बन गया है। उन्होंने भी गद्गद हृदय से 12 दिसम्बर 1974 बाबा ने अपने प्राशीर्वचन में कहा है कि मेरे को हस्ताक्षर करके उस 756 गाथा-प्रमाण-ग्रन्थ- जीवन में मुझे अनेक समाधान प्राप्त हुए हैं । राज को निर्वाण शती वर्ष की उस महान् उपलब्धि उनमें पाखरी अन्तिम जो शायद सर्वोत्तम समाधान को अपना आशीर्वाद प्रदान किया। हजारों वर्षों है, इसी साल (1974-76) प्राप्त हुआ है। मैंने से पली प्रारही बहुत बड़ी कमी पूरी हुई। कई दफा जैनों से प्रार्थना की थी कि जैसे वैदिक 3-20 महावीर जयन्ती स्मारिका 77 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014023
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1977
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1977
Total Pages326
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size25 MB
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