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________________ निर्वारण-शती वर्ष की महान् उपलब्धि ! प्राचार्य विनोबा भावे सर्व धर्म समभाव तथा समन्वय के लिए निरन्तर प्रेरणादायी बल देते रहे हैं। उनका सारा जीवन ही दलों को जोड़ने श्रौर उन्हें जोड़े रहने का रहा है। इसी जन-हित- दृष्टि से उन्होंने अनेक धर्म-ग्रन्थों पर दूरगामी कार्य किया है। भगवद् गीता, वेद, बाइबिल, कुरान, जपुजी श्रादि विशिष्ट प्रोर जनमान्य धर्मव्रन्थों के सार-संकलन तैयार किये और धम्मपद की तो उन्होंने नव-संहिता ही प्रस्तुत करदी । उनका गीता प्रवचन तो प्राज घर घर पढ़ा जा रहा है। इसी तरह वे चाहते थे कि जैनधर्म का भी एक समन्वयाहमक तथा सर्वमान्य ग्रन्थ तैयार हो । महावीर की वाणी भी कालमान्य हो । सर्व सेवा संघ प्रकाशन की ओर से लगभग चार वर्ष पूर्व इस दिशा में प्रयास शुरू किया गया। श्री जिनेन्द्र वर्णी जी के समक्ष विनोबाजी की यह भावना रक्खी गई, जो उनके हृदय को स्पर्श कर गई । फलस्वरूप जनवरी 1973 के प्रारम्भ में श्री वर्णीजी श्रीर बाबा के बीच ब्रह्म विद्या मन्दिर पवनार में दो दिन तक इस पर चर्चा हुई और उसके बाद श्री वर्णीजी ने विनोबा के मार्ग दर्शन में मर्यादाम्रों को ध्यान में रखते हुए 430 गाथा प्रमाण " जैन धर्म सार" नामक ग्रन्थ संकलित कर दिया जो 11 सितम्बर 1973 को विनोबाजी को समर्पित कर दिया गया। उनके प्रादेशानुसार वह ग्रन्थ मुद्रित हुप्रा पौर भारत के सभी साधुनों तथा विद्वानों के पास महावीर जयन्ती स्मारिका 77 Jain Education International * श्री प्रतापचन्द्रजी जैन, नागरा सम्मत्यार्थ भेजा गया। सभी ने उसमें गहरी रुचि ली; अनेक उपयोगी सुझाव श्राये। उन सुझावों को ध्यान में रखकर पं० दलसुख भाई मालवरिया ने 570 गाथा - प्रमाण एक नया संकलन तैयार किया; तदुपरान्त श्री वर्णीजी ने उन सारे सुझावों प्रौर उस नये संकलन को सामने रखकर 807 गाथा - प्रमाण " जिरा धम्म" नामक ग्रन्थ तैयार किया । इस नये संकलन पर विचार करने हेतु 2930 नवम्बर 1974 को भारत की राजधानी दिल्ली में विनोबाजी की प्रेरणा और संघ के ही सत्प्रयास से एक संगीति प्रायोजित की गई । भगवान महावीर के 2500 वें निर्वाण महोत्सव के कारण प्रायः सभी प्रधान जैन साधु- संघ श्रौर विद्वान उन दिनों सहज ही दिल्ली में उपलब्ध हो गये। उनमें श्राचार्यश्री तुलसीजी, श्री विजयसमुद्रसूरिजी भाचार्य श्री धर्मसागरजी, उपाध्याय श्री विद्यानन्दजी मुनि मुनिश्री सुशीलकुमारजी, मुनिश्री नथमलजी एवं मुनिश्री जनकविजयजी सहित देश के लगभग सभी चोटी के विद्वान सम्मिलित हुए । शुरू में तो हजारों वर्षों की मान्यता भेदरूपी दीवार को तोड़ कर इनका एकत्र होना ही प्रति कठिन लग रहा था; ऐसे ग्रन्थ का संकलन तो बहुत ही दुर्द्धर कार्य था तथा संगीति का प्रायोजन तो भोर भी दुश्वार । चोटी के बिद्वान ही नहीं मुनिगण तक इस बारे में संदिग्ध थे । लेकिन For Private & Personal Use Only 3-19 www.jainelibrary.org
SR No.014023
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1977
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1977
Total Pages326
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size25 MB
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