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________________ कहानी उसकीकहानी:न मरण नमोक्ष -श्री सुरेश सरल, जबलपुर लम्बी विशिल के बाद कण्डक्टर ने छोटी-छोटी से मुस्कराया, फिर बुदबुदाने जैसी कुछ अस्पष्ट दो विशिल पौर दी। बस के चक्के घूमे कि एक प्रावाज में प्राप ही बोला-रायपुर तो मैं भी जा पादमी स्फूर्ति के साथ बस में घुस आया। उसने रहा हूँ। मैं चुप रहा। उसने अब दूसरा प्रश्न यहाँ वहां नजर दौड़ाई। सभी सीटें भरी नजर आई किया- 'तो माप जबलपुर में ही रहते हैं ?" "हां" उसे । “खैर गाड़ी तो मिल गई" शायद वह सोचते संक्षिप्त में ही मैंने कहना चाहा था । "मैं तो हुए उसने अपने माथे पर हाथ फेरा। वह पसीने की रायपुर का रहने वाला हूँ। यहां रिलेशन में पाया नवजात बूदों को पोंछ रहा था। तभी मेरी दृष्टि था। दो दिन रुका, प्राज जा रहा हूँ।" चेहरे पर उसकी दृष्टि से मिली तो वह प्रात्मीयता के भाव बनावटी हँसी लाकर मैंने इस बार कुछ ठीक से चेहरे पर लाकर बोला मुझसे-"भाई साहब, आपको कहा-प्रच्छा ! वह फिर बोलने लगा-भेड़ाघाट बहुत साइड में कोई नहीं है ?" मेरे उत्तर की प्रतीक्षा पसन्द आया मुझे । जब पाठवें दजे में था तो इसी किये वगैर ही वह मागे बोला-'मैं बैठ सकता हूँ' भेड़ाघाट पर एक निबन्ध लिखने दिया गया था एक बालसुलभ स्वच्छ मुस्कान उसके मोठों पर खिल परीक्षा में। तब मैने तपाक से प्रश्न कियागई। तभी आगे की सीट से दो युवतियों ने उसे "फिर ?"-फिर क्या देखा तो नहीं था किन्तु देखा। कुछ कहे वगैर मैं एक तरफ हो गया। वह पं० भवानीप्रसाद तिवारी का एक लेख पढ़ा था होले से मेरे बाजू में बैठ गया। उसकी टिकटें हो अपनी पाठ्य पुस्तक में। बस उसी के प्राधार पर चुकी थी। कण्डक्टर टिकटें मिला रहा था। गाड़ी धड़ाधड़ लिख दिया और उसमें अच्छे नम्बर भी मागे बढ़ने लगी थी। मिले थे। पुनः उसकी आवाज में कुछ बदलाहट धन्टे भर बाद ही ड्राइवर ने अन्दर की लाइट प्रायी और वह पूछने लगा-माप जानते हैं पं० बुझा दी । तब बाहर का अन्धकार बलात् भीतर भवानीप्रसाद तिवारी को? उसके सहज प्रश्न पर घुस माया, कालिमा की एक पतली झिल्ली पसर मुझे हंसी मा गई । मैं हंसता हुप्रा बोला-हो गई थी। गाड़ी का फाटक विधवा के इकलौते पूत बचपन से। की तरह शोर कर रहा था, तो बाजू वाले ने हाथ बस की तीव्र गति मंथर होने लगी। कोई बढाकर उसे भीतर की ओर एक झटके से खींच बस्ती प्राने वाली थी। जंभाई प्राने का क्रम टट लिया। शोर बन्द हो गया । गाड़ी बढ़ी जा रही थी। न रहा था। बस रुकने पर उसने मुझे चाय पीने “कहिये माप कहां जाइयेगा ?" उसने मुझसे के लिए अनुरोध किया। हम लोग चाय पीने पूछा । मैं उत्साह को बन्द करते हुए बोला-"बस लगे। मेरी चाय समाप्त हो कि उसने चाय का रायपुर तक !" यह सुनकर वह एक मीठी मुस्कान पैसा चुका दिया । हम फिर बस में प्रा गये । रात्रि महावीर जयन्ती स्मारिका 77 3-9 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014023
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1977
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1977
Total Pages326
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size25 MB
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