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________________ नहीं ? निर्दयता की सीमा लांघ गये श्र ेष्ठी ! कोई पिता इतना निर्दय होता है। एकमात्र का भी आपको ध्यान नहीं ?...... . ( रुदन से अवरुद्ध स्वर में ) यदि चंद्र को कुछ हो गया तो ?............... मैं आपसे सम्बन्ध विच्छेद कर लूँगी । [ चंद समय पश्चात् श्रेष्ठी धनंजय की पूजन समाप्त होती है। वे एक दृष्टि मूच्छित निश्व ेट बालक पर डालकर तत्काल पुनः शांत भाव से स्वप्न में डूब जाते हैं । गद्गद् हो उनकी आंखों से मानंदाश्र भरने लगते हैं। श्रेष्ठी के स्तवन के स्वर सुनाई पड़ने लगते हैं । स्तवन की मार्मिकता का बोध होते ही शनैः शनैः कोलाहल शांत हो जाता है। ऐसा प्रतीत होता है मानो जन जन सम्मोहित हो एक ही प्रवाह में निश्चेष्ट बहा जा रहा है । ) धनंजय - हे प्रभु! आपके समीप यद्यपि वैभव के नाम पर एक तृरण भी नहीं है, तथापि भाप प्रद्भुत दानी हैं । सत्य है कि प्रकिचन व्यक्ति तत्काल फल देता है। जबकि वैभवशाली कृपरण विलम्ब से भी कुछ नहीं देता । जैसे शुष्क गिरिशिखर अनेक सरितानों को प्रवाहित कर तृषित प्राणियों को तृप्त करता है। किन्तु प्रगाध जलराशि के वृहद् भण्डार सागर ने कृपणता के कारण सरित दान तो दूर एक बिन्दु जल का भी दान नहीं किया । वसुमती--प्रो भक्त पुजारी ! हो जायगी । धनंजय - - (तन्मयता से भक्तिरत हैं) हे सर्वज्ञ ! आप अपने त्रैकालिक श्रात्मस्वभाव में सदैव संस्थित हैं । श्रतः प्रापका अवलोकन ग्रात्मदर्शन में निमित्त मात्र हो व्यक्ति को श्रात्मलाभ का प्रपूर्व मानन्द उपलब्ध कराता है। जबकि सांसारिक विशाल सम्पदा किसी को क्षण भर भी सुख नहीं दे सकती । कृपया बालक की रक्षा का उपाय करें। पूजन तो फिर भी १ ला व्यक्ति -- धन्य है श्रेष्ठी ! धन्य है भापको एवं धन्य है आपका आत्मगुणानुराग । सत्य ही आपकी भक्ति अद्वितीय है । धनंजय - - हे वीतराग ! वरदान प्राप्ति की तुच्छ आशा से प्रेरित हो मैंने प्रापकी भक्ति नहीं की; क्योंकि मुझे भलीभांति ज्ञात है कि आप राम से सम्बन्ध तोड़ निस्पृही हो गये हैं । और फिर कोई किसी को दे ही क्या सकता है ? प्रत्येक पदार्थ निरन्तर स्वकार्यरत है । फिर भी विनम्र भक्त अनायास मनोवांछित फल को प्राप्त कर लेता है। ऐसा कौन प्रज्ञानी है जो बृक्ष से स्वयमेव प्राप्त होने वाली छाया की याचना करेगा ? प्रत्येक श्रात्मा स्वभावत: अक्षय सम्पत्तिवान है । 3-6 ( श्र ेष्ठी धनंजय चन्द क्षरणों को मौन हो जाते हैं । तत्पश्चात् भूप्ररणत हो नमस्कार करते हैं और फिर मुडने पर पत्नी व मूच्छित पुत्र को देखते हैं ।) वसुमती -- ( व्यंग्य से ) हो गई श्रापकी पूजा अर्चा ? शेष रह गई हो तो वह भी पूर्ण करलें । धनंजय - (शांतिपूर्वक) देवी ! इस समय तुम यहां कैसे चली आई ? श्रोर क्रोध को भी साथ ले वाई | चन्द्र को क्या हो गया है ! Jain Education International For Private & Personal Use Only महावीर जयन्ती स्मारिका 77 www.jainelibrary.org
SR No.014023
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1977
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1977
Total Pages326
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size25 MB
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