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________________ दीवानजी, सिरमोरियों का मन्दिर, संघीजी का इसमें हजारों मूर्तियों की प्रतिष्ठा हुई। इसी तरह मन्दिर, खिन्दूकों का मन्दिर, ठोलियाँ का मन्दिर, संवत् 1861 में जयपुर में भट्टारक सुखेन्द्रकीति के महावीर स्वामी का मन्दिर, दारोगाजी का मन्दिर, निर्देशन में एक और विशाल प्रतिष्ठा समारोह बधीचन्दजी का मन्दिर, चाकसू का मन्दिर, हुआ। इन प्रतिष्ठानों से भट्टारकों के प्रति जनता चौबीस महाराज का मन्दिर, खानियां में राणाजी का सहज पाकर्षण हुप्रा और धार्मिक गतिविधियों का मन्दिर आदि के नाम उल्लेनीय हैं । में उनका सर्वोच्च स्थान माना जाता रहा । मट्टारक: विद्वान् : राजधानी बनने के साथ ही जयपुर पामेर जयपुर नगर विद्वानों एवं पंडितों का नगर गादी के भट्टारकों का केन्द्र बन गया। यही नहीं भी रहा। गत 250 वर्ष से यहां जितने विद्वान् उन्होंने अपनी गादी को भी आमेर से जयपुर एवं साहित्य-सेवी हुये उतने अन्यत्र किसी भी नगर स्थानान्तरित कर दिया। जयपुर की स्थापना में नहीं हो सके। यहां पंडित टोडरमलजी हुये भट्टारक देवेन्द्रकीति के शासन काल में हुई थी। जिन्होंने मोक्षमार्ग प्रकाशक जैसे ग्रन्थ की रचना की इनके पश्चात् संवत् 1792 में भट्टारक महेन्द्रकीर्ति एवं गोम्मट्टसार, लब्धिसार, क्षपणसार जैसे ग्रन्थों की हुये । यद्यपि उनका पट्टाभिषेक देहली में हुआ भाषा टीका की। इसी समय महाकवि दौलतराम था लेकिन जयपुर नगर इनकी सांस्कृतिक गति- कासलीवाल हुये जिन्होंने जयपुर में हरिवंशपुराण, विधियों का केन्द्र था। इनके पश्चात् भट्टारक पद्मपुराण, आदिपुराण आदि की भाषा टीका क्षेमेन्द्रकीति (संवत् 1815) भट्टारक सुरेन्द्रकीति लिखकर जन-जन में स्वाध्याय का जबरदस्त प्रचार (संवत् 1822), भट्टारक सुखेन्द्रकीर्ति (संवत् किया । इसी समय कविवर बख्तराम हुये जिन्होंने 1852), भट्टारक नरेन्द्रकीर्ति (संवत् 1880) बुद्धिविलास एवं मिथ्यात्वखंडन जैसे ग्रन्थों का एवं भट्टारक देवेन्द्रकीति (संवत् 1883) के जयपुर निर्माण किया। इनके बाद पं० जयचन्द्र छाबड़ा में ही पट्टाभिषेक हुये। इन भट्टारकों के कारण हुये जिन्होंने पं० टोडरमलजी एवं दौलतरामजी की ढूढाड प्रदेश में जबरदस्त सांस्कृतिक जागृति परम्परा को जीवित रखा और 15 से भी अधिक रही । मन्दिरों के निर्माण, बिम्ब प्रतिष्ठानों का ग्रन्थों की भाषा टीका निबद्ध की। इनमें समयसार आयोजन तथा व्रत विधान उत्सव आदि में इनका भाषा टीका, सर्वार्थसिद्धि भाषा, अष्ट पाहुडभाषा, सबसे अधिक योगदान रहा। संवत् 1780 में ज्ञानार्णवभाषा, आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। जयसिंहपुरा खोर में मन्दिर का निर्माण होकर उन्हीं के समकालीन ऋषभदास निगोत्या हुये प्रतिष्ठा हुई जिसमें भट्टारक देवेन्द्रकीर्ति का प्रमुख जिन्होंने मूलाचार की भाषा टीका संवत् 1888 में योगदान रहा । संवत् 1783 में जो बांसखों में पूर्ण की थी। ऋषभदास निगोत्या के सुपुत्र विशाल पंचकल्याणक प्रतिष्ठा हुई थी उसमें भी पारसदास भी साहित्यकार थे जिन्होंने ज्ञानसूर्योदय भट्टारक देवेन्द्रकीति का ही आशीर्वाद था। इसके नाटक की संवत् 1910 में भाषा टीका पूर्ण की। पश्चात् संवत् 1826 में भट्टारक सुरेन्द्रकीति के इसी नगर में पं० बुधजन हुये जो एक अच्छे कवि निर्देशन में सवाई माधोपुर में संघी नन्दलाल गोधा थे और जिन्होंने अपने प्रसिद्ध कृति बुधजन सतसई ने जो पंचकल्याणक प्रतिष्ठा करवायी थी वह संवत् 1879 में समाप्त की थी। इनके दूसरे अपने समय की सबसे प्रभावशाली प्रतिष्ठा थी। ग्रन्थ हैं तत्वार्थबोध, पंचास्तिकाय एवं बुधजन 2-78 महावीर जयन्ती स्मारिका 77 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014023
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1977
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1977
Total Pages326
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size25 MB
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