SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 229
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ इसी प्रकार 'प्राग्वाट' भी विचारणीय पद है चंवर धारियों का प्रालेखन है। दोनों ही के एककिन्तु इसका समाधान पोरवाल या परवार जाति एक हाथ खंडित हो चुके हैं। पीठ के दोनों प्रोर के रूप में ज्ञात हुआ। यह जाति आज भी सिंहासन के गजमुख बने हैं। मुनिसुव्रत की प्रतिमा राजस्थान में पायी जाती है। __ के ऊपर की ओर दाँयी बाँयी ओर विद्याधर यू तो प्रतिमा लेख में श्री मुनिसुव्रत की मिथुन बने हैं, मलनायक के शिर के पीछे प्रष्ट प्रतिमा की स्थापना का उल्लेख है, किन्तु इस पद्मपत्रों से बना प्रभामंडल है इसके ऊपर तेज कलाकृति की विलक्षणताए, विशेषताए' कुछ मंडल भी दर्शनीय है। प्रभामंडल के दोनों ओर अधिक सोचने को विवश करती है। मूलनायक कैवल्य वृक्ष के एक एक पत्ते बने है । और प्रभामंडल बीसवें तीर्थङ्कर सुव्रतनाथ का लांछन कच्छप के मध्य में त्रिछत्र दंड बना है । ऊपर त्रिछत्र है (कछुमा) दांयी ओर को मुह किए सनाल कमल नीचे मुनिसुव्रत सुशोभित हैं जिस पर अमृतघट पर बना है । इसी की बांयी पोर दाँयी पोर आमने- तदपुरान्त देवदु'दभिवादक का अंकन है। सामने मुह किए वस्त्राभूषणों से सजे नमस्कार त्रिछत्र के बराबर दोनों ओर एक-एक सजे मुद्रा में क्रमशः स्त्री पुरुष विराजमान हैं। पुरुष के डाढ़ी है। ठीक कच्छप के ऊपर ही षोडश पारों का __ हुए हाथी (ऐरावत) जिन पर सवार हैं । बाँयी चक्र है जिसके बीच से वस्त्र बाहर को निकला हुआ ओर दो सवार भी हैं पिछला सवार कलश लिए है, ऐसा हो सकता है कि इन्द्र मूलनायक है। चक्र के ऊपर वताकार में नक्काशी का वेष्टन की अभ्यर्थना हेतु अमृत ला रहा हो। दसरी तरफ भी ऐसा बना होगा किन्तु इस समय खंडित ही है । तदुपरान्त प्रासन का भार वहन करने वाले दोसिंह बने हैं। जो एक पैर को उठाए हुए हैं तथा तदुपरान्त मूलनायक के अंकन के ऊपर दो दोनों ही के मुह सामने को खुले हुए हैं। इसके खम्भों का सहायता से मन्दिर या गर्भगह बना पास ही दोनों ओर एक-एक अलंकृत स्तम्भ थे है जिसके भीतर ध्यानस्थ जिन बने हैं । इनके दोनों किन्तु दाँयी ओर का स्तम्भ टूट गया है। प्रासन अोर चतुर्भुजी एक-एक देव प्रतिमाएं भी बनी चौकी पर सामने की ओर तीन बड़े फूल हैं जो पांच है। बांयी ओर की मूर्ति के हाथों में गदा, शंखादि लघु पुष्पों के गुच्छे हैं बाकी भाग को छोटे चार- बने हैं दायी तरफ की मूर्ति के सिर पर सर्पफण, खानों से सजाया गया है और बीचोंबीच में हल, मूसल, पात्र आदि बने हैं। इस प्रकार क्रमशः मनकों का अंकन है। इसी के नीचे आसन का बिछा ये श्रीकृष्ण एवं बलराम के रूप में पहचाने जा वस्त्र लटक रहा है जिस पर वक्र रेखाओं का सकते हैं । अस्तु बीच में ध्यानस्थ जिन नेमिनाथ मनोहारी विलेखन है और तीन कीर्तिमुखों के मुह भगवान स्वयं सिद्ध हो जाते हैं। इन्हीं बलराम से निकलने वाली मुक्तालड़ियों को दर्शाया है। श्रीकृष्ण के निकट ही वीणा एवं बांसुरी वादक भी तत्पश्चात् कमल पर ध्यानस्थ मुनिसुव्रतनाथ को बने हैं । नेमिनाथजी की वेदी के ठीक ऊपर बड़ा बैठाया गया है। मुनिसुव्रतनाथ के वक्षस्थल पर कीर्तिमुख है जिसके मुख से मोतियों की मोटी बटी श्रीवत्स एवं शिर पर घुघराले केश है। मूल- हुई लड़ी दोनों ओर नीचे को जा रही है तथा नीचे नायकोचित भाव का सफल चित्रण है। मुख से एक-एक पुरुष इसे दृढ़ता से पकड़े बने हैं। यद्यपि शान्ति एवं करुणा को प्रभा फूटी पड़ती है । मूल. इन पुरुषों के ऊपरी भाग टूट चुके हैं किन्तु निचले नायक के बाँए एवं दाँए एक जैसी वेश सज्जा वाले भाग शेष हैं। 2-64 महावीर जयन्ती स्मारिका 77 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014023
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1977
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1977
Total Pages326
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy