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________________ ई.) का लेख उत्कीर्ण है (नं. ६७२०) । यहां पर पन्द्रहवें तीर्थकर धर्मनाथ की चौवीसी अन्य मूर्तियों की ही भांति इस मूर्ति में नेमिनाथ भी उल्लेखनीय है (नं० 67.17) जिसका निर्माण के दोनों ओर चंवरधारी सेवकों के अतिरिक्त उनके 15वीं शती ई० के पूर्वाद्ध में हुआ था। मध्य में यक्ष एवं यक्षी का अङ्कन प्राप्त है । नेमिनाथ की धर्मनाथ एक गज सिंहासन पर ध्यान मुद्रा में इस प्रकार की मूर्तियां कम ही प्रकाश में पाई हैं। विराजमान हैं। इनके दोनों प्रोर एक-एक तीर्थ उपयुक्त नेमिनाथ की मूर्ति से साम्यता कर जो पार्श्वनाथ तथा सुपाणनाथ प्रतीत होते रखती चौबीसवें तीर्थकर महावीर की भी मूर्ति हैं, सर्प फणों के नीचे कायोत्सर्ग मुद्रा में खड़े हैं। है। इसमें इनके शीश के पीछे पद्म-रूपी प्रभा हैं शेष तीर्थकर पंक्तियों में प्रभा तोरण के ऊपरी भाग तथा इनकी प्रांखों में चाँदी लगी हुई है। कला पर ध्यान मुद्रा में प्रदर्शित किए गए हैं । मूल मूर्ति की दृष्टि से यह मूर्ति कोई अच्छा उदाहरण नहीं के दोनों प्रोर यक्ष किन्नर तथा यक्षिणी कन्दर्पा मानी जा सकती है। मूर्ति के पीछे सं० १२४३ का सुन्दर प्रकन प्राप्त है। मकर तोरण के ऊपरी (११८६ ई.) के लेख से ज्ञात होता है कि इसका भाग में कलश बना है। मूर्ति के पीछे वि. सं. निर्माण वोधरदेव एवं पूनसिरि के पुत्र वहड़क ने 1484 (1427 ई०) का लेख उत्कीर्ण है । क्यिा था तथा वीरप्रभ सूरि ने इसकी प्रतिष्ठापना की थी (नं0 67.19)। महावीर की वाणी ! यदि जन जन के अन्तस् में, घुल जाये महावीर की वाणी ! झूठ, छल, कपट, काला बाजारी, का हो जाये मुंह काला, हिंसा, चोरी, अनाचार का जग से निकल जाय दीवाला, सबल-निबल के छुपा-छूत के । भेदों पर पड़ जाये पाला, असामाजिक तत्वों की गति विधियों पर भी पड़ जाये ताला सारा पाप पंक धुल जाये वह निकले धारा कल्याणी यदि जन जन के अन्तस् में घुल जाये महावीर की वाणी ! (श्री ज्ञानचन्द्र 'ज्ञानेन्द्र' ढाना) 2-62 महावीर जयन्ती स्मारिका 77 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014023
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1977
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1977
Total Pages326
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size25 MB
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