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________________ 231 हिय मिय-मण्णं पांरण रिगरवज्जेहिं गिराउल में नहीं पाए । प्राचीन ग्रन्थों में उत्तम मध्यम एवं ठारर्ण । जधन्य पात्रों के नाम से तीन भेद पात्रों के हैं फिर सयरणासणभवयरणं जारिणका देइ मोक्खरो। कुपात्र एवं प्रपात्र हैं ये सप्तक्षेत्र कब से किस शास्त्रकार ने मान्य किए हैं. इसका स्पष्टीकरण मोक्षमार्ग में स्थिर (गृहस्थ) (मुनि के लिए) प्रावश्यक है। इनमें प्रतिम चार क्षेत्र दत्तियों हितकर परिमित अन्नपान, निर्दोष प्रौषधि, (पात्रदत्ति, समदत्ति, दयादति और अन्वयदत्ति) के नाम से प्रादिपुराण में भरत चक्रवर्ती ने अवश्य निराकूल स्थान, शयन, प्रासन, उपकरण को समझकर देता है । (डा. देवेन्द्रकुमारजी ने भावार्थ a बताए हैं । पुत्र परिवार को समस्त धन संपदा देना में उपकरण के बाद कोष्ठक में "प्रादि" और तीनलोक के राज्य फलस्वरूप पंचकल्यारण रूप फल अर्थात तीर्थकर पद देता है ऐसा कुन्द-कुन्द या अन्य लिखा है) मुनि के लिए शयन, प्रासन, उपकरण किसी प्राचार्य ने नहीं लिखा । सभी मनुष्य मरते पौर प्रादि क्या है ? प्राज मुनिगण अपने इन शयन प्रासन उपकरण आदि के नाम पर इतना समय या वैसे भी अपनी धन संपदा पुत्र परिवार परिग्रह रखते हैं कि उन्हें लाने लेजाने के लिए बड़ी को दे जाते हैं क्या वे तीर्थकर प्रकृति के फल को २ बसें चाहिए । इतने परिग्रह को रखते हुए वे मुनि पाते हैं ? ऐसा कथन कर्म सिद्धान्त के सर्वथा निग्रंथ दिगम्बर कैसे कहला सकते हैं ? विपरीत है। स्वयं डा० देवेन्द्र कुमारजी भी उक्त गाथा से सहमत नहीं दिखते है. इसी लिए उन्होंने निम्न गाथा में सप्तक्षेत्रों में दान देने का फल भावार्थ में 'पंचकल्लागफल का अर्थ नही दिया। इस प्रकार बताया गया है उत्तम पात्र मुनि को धन देने के लिए कुन्दकुन्द इह रिणयसुवित्तबीयं जो ववइ जिणुत्तसत्त जैसे निग्रंथ तपस्वी कैसे कह सकते थे ? उनकी __ खेत्त सु। गाथानों में तो मुनि को द्रव्य देना पापमूलक ही सो तिहुवरणरज्जफलं भुजदि कल्लाणंपचफलं। बताया गया है। 161 गाथा संख्या 2 में सम्यग्दृष्टि का निम्न स्वरूप इस लोक में जो व्यक्ति निज श्रेष्ठ धन रूप बताया हैबीज के जिनदेव द्वारा कथित सप्तक्षेत्रों में बोता है पुव्वं जिणेहिं भणियं जहट्ठियं गणहरेहि वित्थरियं । वह तीन लोक के राज्य फल-पंचकल्याणक रूप कल को भोगता है। पुव्वाइरियक्कमजं तं बोल्लइ सोहु सद्दिट्ठी ।2। इन सप्तक्षेत्रों का किसी प्राचीन ग्रंथ में (जो) पूर्वकाल में सर्वज्ञ के द्वारा कहे हुए, उल्लेख देखने में नहीं पाया। डा. देवेन्द्र कुमारजी __ गणधरों द्वारा विस्तृत तथा पूर्वाचार्यों के क्रम से प्राप्त वचन को ज्यों का त्यों बोलता है वह निश्चय ने भावार्थ में सप्तक्षेत्र इस प्रकार लिखे हैं । जिन से सम्यग्दृष्टि है। पूजा 2. मन्दिर प्रावि की प्रतिष्ठा 3. तीर्थयात्रा 4. मुनि प्रादि पात्रों को दान देना 5. सहमियों सम्यग्दृष्टि का ऐसा लक्षण इसी ग्रंथ में मिलता को दान देना 6. भूखे-प्यासे तथा दुखी जीवों है अन्यत्र शायद ही मिले। को दान देना 7. अपने कुल व परिवार वालों को गृहस्थ के आवश्यक षटकर्मों में दान का अंतिम सर्वस्वदान करना । कुन्दकुन्दाचार्य उनके टीकाकार स्थान है किन्तु रयणसार के कुन्दकुन्द दान को देव व अन्य प्राचार्यो के ग्रन्थों में क्षेत्र के ये भेद देखने पूजा से भी पहले मुख्य स्थान देते हैं 2-22 महावीर जयन्ती स्मारिका 77 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014023
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1977
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1977
Total Pages326
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size25 MB
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