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________________ उपासकाध्ययन में उस दान को सात्विक 14 वीं गाथा अवश्य उद्धृत की जाती है । कहा गया है जिसमें पात्र का परीक्षण व निरीक्षण समणसत्र में भी उक्त गाथा का समावेश किया है स्वयं किया गया हो और उस दान को तामस दान जब कि उत्तम पात्र को दान देने की प्रेरणा देने कहा गया है जिसमें पात्र-अपात्र का ख्याल न किया वाली न केवल रयणसार में अपितु अन्य सभी गया हो । सात्विक दान को उत्तम एवं सब दानों शास्त्रों में गाथाएं हैं किन्तु वे गाथाये समणसूत्त में में तामसदान को जधन्य कहा गया है । (829.31) नहीं दी गई है। पाठक विचार करें कि अपात्र के दान का इस इस प्रकार की गाथानों से अपात्रों-मिथ्या प्रकार का फल होने पर कुन्दकुन्दाचार्य जैसा महान दृष्टि शिथिलाचारी एवं अनाचारी को प्रोत्साहन प्राचार्य कैसे कह देता कि पात्र-अपात्र का क्या एवं समर्थन मिलता है ऐसी गाथा कुन्दकुन्द जैसे विचार करना? पागम परंपरा के संस्थापक की नहीं हो सकती। वस्तुतः ऐसी गाथा कोई भट्टारक या शिथिलाचारी ही लिख सकता है जो चाहता है कि लोग मुनि के आहार के पश्चात् प्रसाद दिलाने उसे आहार दान देते ही रहें चाहे उसके पाचरण वाली निम्न गाथा भी विचारणीय है-- कैसे ही क्यों नहो । उनकी परीक्षा न करे और एक जो मुनिभुत्तवसेसं भुजइ सो भुजए जिणुवदिळं। बार पाहार देने पर उसकी फिर परीक्षा करना या संसार-सर-सोक्खं कमसो रिणवाणवरसोवखं । 2 । शिथिलाचारी या अनाचारी मान लेने पर भी उसको जो जीव मुनियों के प्राहार दान देने के प्रकाश में लाना सम्भव नहीं हो सकेगा। पश्चात् अवशेष प्रश को सेवन करता है वह संसार यशस्तिलक चम्पू काव्य में उक्त 14वीं गाथा के सारभूत उत्तम सुखों को प्राप्त होता है और क्रम के प्राशय का निम्न श्लोक मिलता है से मोक्ष सुख को प्राप्त करता है । भुक्तिमात्रप्रदाने हि का परीक्षा तपस्विनाम् ते सन्त, सन्त्व-सन्तों वा गृहंदाने न क्षुल्लक ज्ञानसागरजी ने अवशेष प्रश के लिए शुद्धयन्ति । 36 ।। लिखा है कि इसको प्रसाद समझकर ग्रहण करना चाहिए इसका दानसार में महत्व बताया गया है । उक्त चम्पू काव्य उत्तरकालीन रचना होने के ___ अब तक मैंने रयणसार की 4-5 मुद्रित साथ-साथ एक काव्य ग्रन्थ है जिसको आचार शास्त्र प्रतियां देखी है उनमें यह गाथा उक्त रूप में ही या दर्शन की मान्यता नहीं दी जा सकती। वैसे लिखी गई है। समणसुत्तं में भी उक्त गाथा इसी सिद्धान्त की दृष्टि से उक्त श्लोक भी प्रागम परंपरा रूप में सम्मिलित की गई है किन्तु अभी डा० के प्रतिकूल ही है क्योंकि सम्यग्दृष्टि गृहस्थ सच्चे देवेन्द्र कुमार शास्त्री द्वारा सम्पादित रयणसार इस साधु को ही वंदना पूर्वक आहार दे सकता है वह गाथा में प्रागत 'मुनिभुक्तवसेंस, को मुणिभुक्ता विसेंस असाधु की वंदना नहीं कर सकता । लिखा गया है। यह परिवर्तन संभवतः इसीलिए प्राज भी शिथिलाचारियों के विरोध की बात। किया गया है कि प्रसाद खाने का जैन परंपरा से पर उक्त गाथा की दुहाई दी जाती है और उनको किसी प्रकार प्रौचित्य सिद्ध नहीं होता, अन्यथा दान देने का समर्थन किया जाता है । रयणसार इस परिवर्तन का कारण उन्होंने नहीं बताया। की अन्य गाथानों में उत्तम पात्र को दान देने वाली निम्न गाथा में मुनि के लिए देय पदार्थों की जो गाथाए हैं उन्हें उद्धृत नहीं किया जाता किन्तु सूची दी गई है महावीर जयन्ती स्मारिका 71 2-21 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014023
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1977
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1977
Total Pages326
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size25 MB
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