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________________ दूसरे खण्ड में पृष्ठ 115 पर रयणसार के सम्बन्ध में डॉ० उपाध्ये का मत उद्धृत करते हुए लिखा है वस्तुतः शैली की भिन्नता और विषयों के सम्मिश्रण से यह ग्रन्थ कुन्दकुन्द रचित प्रतीत नहीं होता ।" 4 डॉ० लालबहादुर शास्त्री ने अपने 'कुन्द कुन्द और उनका समयसार' नामक ग्रन्थ में रयणसार का परिचय देकर लिखा है कि ‘रयणसार की रचना गम्भीर नहीं है, भाषा भी स्खलित है, उपमाओं की भरमार है । ग्रन्थ पढ़ने से यह विश्वास नहीं होता कि यह कुन्दकुन्द की रचना है । यदि कुन्दकुन्द की रचना यह रही भी होगी तब इसमें कुछ ही गाथा ऐसी होंगी जो कुन्दकुन्द की कही जा सकती हैं। शेष गाथा व्यक्ति विरोध में लिखी हुई प्रतीत होती हैं । गाथानों की संख्या 167 है | ( पृ० 142 ) ( इस ग्रन्थ का विमोचन उपाध्याय श्री विद्यानन्दजी के भाशीर्वाद से हुमा है) इस प्रकार उक्त विद्वानों व अन्य प्रमुख विद्वानों द्वारा भी रयणसार कुन्दकुन्द की रचना नहीं मानी गयी है । इस ग्रन्थ को कुन्दकुन्दाचार्य कृत न मानने के कुछ और भी कारण हैं जिन पर ध्यान दिया जाना आवश्यक है । 1 कुन्दकुन्द के सभी 'सार' ग्रन्थों ( प्रवचनसार, नियमसार, और समयसार ) पर संस्कृत टीकाए उपलब्ध हैं जबकि इसी तथाकथित 'सार' ( रयणसार) की संस्कृत टीका नहीं है । प्राचीन काल में कुन्दकुन्द के उक्त तीनों ग्रन्थ नाटकत्रयी के नाम से विख्यात से हैं और यदि उनके सामने यह 'रयरणसार' उपलब्ध होता तो नाटकत्रयी ही क्यों कहते ? 2. कुन्दकुन्दाचार्य से लेकर 17 वीं शताब्दी तक न तो इसकी कोई हस्तलिखित प्रति मिलती है, न किसी भी श्राचार्य या विद्वान् ने उस समय महावीर जयन्ती स्मारिका 77 Jain Education International तक इसका कोई उल्लेख या उद्धरण दिया है । कुन्दकुन्द के टीकाकार अमृतचन्द्र, पद्मप्रभुमलधारी, जयसेन आदि टीकाकारों ने भी इसका कहीं भी उल्लेख नहीं किया । पं० श्रशाधर, श्रुतसागर आदि टीकाकारों ने भी अपनी टीकानों में इसका उल्लेख नहीं किया जबकि उनकी टीकात्रों में प्राचीन ग्रन्थों के उद्धरण प्रचुरता से मिलते हैं । 3. 17 वीं शताब्दि से पूर्व की इसकी कोई हस्तलिखित प्रति लेखनकाल युक्त प्रभी तक नहीं मिली। कोई व्यक्ति किसी प्रति को अनुमान से किसी भी काल की बता दे वह बात प्रामाणिक नहीं कही जा सकती । 4. कुन्दकुन्दाचार्य की रचनाओं में विषय को व्यवस्थित रूप से प्रस्तुत किया गया है जबकि इसमें पं० जुगल किशोरजी मुख्तार के शब्दों में विषय बेतरतीबी से प्रस्तुत किये गये हैं । वैसे कहा यह जाता है कि रयणसार' की रचना प्रवचनसार और नियमसार के पश्चात् की गई थी (देखें - रयणसार प्रस्तावना डा० देवेन्द्रकुमार शास्त्री पृ० 21 ) किन्तु रयरसार एवं इन ग्रन्थों की 'तुलना से विदित हो जाता है कि प्रवचनसार प्रोर नियमसार जैसे प्रौढ़ एवं सुव्यवस्थित ग्रन्थों का रचयिता रयणसार जैसी संकलित, अव्यवस्थित, पूर्वापर विरुद्ध प्रोर आगम विरुद्ध रचना नहीं लिखेगा । ( इसके आगम विरुद्ध मंतव्यों का श्रागे विवेचन किया जायेगा ) । 5. इसकी विभिन्न प्रतियों में गाथा संख्याएं समान नहीं है, वे 152 से लेकर 170 तक हैं । 6. कुन्दकुन्दाचार्य के ग्रन्थों में उच्चस्तरीय प्राकृत भाषा के दर्शन होते हैं, उनके काल में अपभ्रंश भाषा थी ही नहीं । उसका प्रचलन एवं प्रयोग कुन्दकुन्द के सैकड़ों वर्ष बाद हुआ है फिर अपभ्रंश की गाथाएं रयणसार में कैसे आ गई । डॉ० लालबहादुरजी शास्त्री के शब्दों में इसकी For Private & Personal Use Only 2-19 www.jainelibrary.org
SR No.014023
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1977
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1977
Total Pages326
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size25 MB
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